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________________ 150 जैन आगम में दर्शन समयसार इसका उल्लेख नहीं करता है। संभव है ग्रन्थकार यह वक्तव्य जानबूझ कर भी नहीं दे रहे हों क्योंकि ऐसा मानने से आत्म-स्वरूप सांख्य स्वीकृत पुरुष जैसा हो जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार बंधन और मोक्ष प्रकृति के होता है,' पुरुष के नहीं होता। यद्यपि आचारांग ने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि-'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' कुशल न तो बंधता है न ही मुक्त होता है, जो बंधन में नहीं पड़ता उसका मोक्ष कैसा ? यद्यपि आचारांग के व्याख्याकार कुशल शब्द के विभिन्न अर्थ करते हैं।' सांख्य दर्शन पुरुष को सर्वथा अपरिणामी मानता है जबकि जैन दर्शन के अनुसार शुद्ध आत्मा में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । इसलिए जैन दर्शन मान्य आत्मा सांख्य सम्मत पुरुष से स्वत: ही भिन्न हो जाता है, अत: यह कहा जा सकता है कि शुद्ध जीव के न बंधन होता है और न मोक्ष । बंध एवं मोक्ष की अवधारणा भी कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है । संसारी जीव कर्मों से बंधता है और उनसे मुक्त होता है। ये अवस्थाएं पुद्गल द्रव्य का ही परिणाम है। व्यवहारनय की वक्तव्यता के अनुसार जीव बंधता भी है और मुक्त भी होता है तथा निश्चयनय के अनुसार वह सदा ही अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित है। कर्म से अस्पृष्ट है। अनन्य है। नियत है। अविशेष एवं असंयुक्त है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव की स्थिति में प्रमाण, नय, निक्षेप, जो वस्तु अवगति के साधन हैं, वे कृतकाम हो जाते हैं। शुद्ध चैतन्य के अनुभव के समय द्वैत प्रतिभासित ही नहीं होता मात्र चैतन्य को अनुभूति होती उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रं । किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ निश्चयनय के अनुसार शुद्ध चैतन्य ही स्वस्वरुप है किंतु व्यवहारनय के अनुसार वर्तमान अवस्था में अनुभूत चैतन्य कर्मबद्ध है। कर्मों के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है । इस तथ्य को भी स्वीकार करना ही होगा। निश्चयनय के प्रबल समर्थक आचार्य कुन्दकुन्द ने भी व्यवहारनय की अनिवार्यता को मान्यता दी है।' 1. सांख्यकारिका, 62, संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः। 2. आयारो, 2/182 आचारांगभाष्यम्, पृ. 1 5 3, पादटिप्पण 4, कुशल का अर्थ है ज्ञानी । धर्मकथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्धविहारी, कथनी-करनी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना में आनेवाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है। 4. (क) समयसार, गाथा 1 2 3, तं सयमपरिणमंतं कहंणु परिणामयदि कोहो। (ख) आत्मख्याति टीका, 12 3, पृ. 198, जीव: परिणामस्वभाव: स्वयमेवास्तु । 5. समयसार, गाथा । 4, जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।। 6. आत्मख्याति, श्लोक, 9, पृ. 36 7. समयसार, गाथा 8, जहण विसक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दुगाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुव देसणमसक्कं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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