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आत्ममीमांसा
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षड् जीवनिकाय
जीव दो प्रकार का होता है-शुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध जीव अपने स्वरूप में अवस्थित है उसके भेद-प्रभेद नहीं होते । अशुद्ध जीव कर्म से बद्ध है। उन जीवों की परस्पर स्वरूपगत समानता होने पर भी संसारावस्था में कर्म के आवरण के कारण उनमें भी तरतमता है। आचारांग में जैसे आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रतिपादित हुआ है वैसे ही उसके संसारी स्वरूप की भी चर्चा है । आत्मा के संसार में संचरण एवं पुनर्जन्म की जिज्ञासा से ही आचारांग का प्रारम्भ हुआ है ।' आचारांगजैसे प्राचीन आगम में मुनि के अहिंसा आचरण के परिपालन के लिए ‘षड्जीवनिकाय' के संयम का उल्लेख है। षड्जीवनिकाय : जैनदर्शन की मौलिक अवधारणा
पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय में जीवत्व की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भगवान् महावीर की 'षड्जीवनिकाय' की अवधारणा से प्रभावित होकर कहते हैं- प्रभो ! आपकी सर्वज्ञता सिद्धि में अन्य प्रमाणों की आवश्यकता ही नहीं है आप द्वारा प्रदत्त षड्जीवनिकाय का सिद्धान्त ही आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि के लिए पर्याप्त है।
षड्जीवनिकायवाद भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त भगवान् महावीर से पूर्व किसी अन्य दार्शनिक द्वारा प्रतिपादित है, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। भगवान् महावीर स्वयं कहते हैं - आर्यों ! मैंने श्रमण निग्रंथों के लिए पृथ्वी आदि छह जीव निकायों का निरूपण किया है। भगवान् महावीर के समय में चतुर्भूतवाद और पंचभूतवाद का उल्लेख मिलता है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु - ये चार महाभूत हैं। इनमें आकाश को सम्मिलित करने से ये ही पंचमहाभूत कहलाते हैं। अजितकेशकम्बल आत्मा को चार भूतों से उत्पन्न मानता था और आकाश भी उसके दर्शन में सम्मत था । इस प्रकार उसका दर्शन पंचभूतवादी था।' इस पंचभूतवाद का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। सूत्रकृतांग में ही पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का धातु रूप में उल्लेख मिलता है। ये भूत अचेतन माने जाते थे और इनसे चेतना की उत्पत्ति
1. आयारो, 1/1-2 2. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, (ले. सिद्धसेन दिवाकर, बाटोदा, 1977) 1/13, य एव षड्जीवनिकायविस्तर:,
परैरनालीढपथस्त्वयोदित: । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवा: स्थिताः।। 3. ठाणं, 9/62, से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया,
आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया। 4. दीघनिकाय, (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1958) पृ. 48. 5. सूयगडो, 1/1/7,8 6. वही, 1/1/18, पुढवी आऊ तेऊय तहा वाऊय एगओ।
चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसुजाणगा ।।
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