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________________ तत्त्वमीमांसा तत्त्वमीमांसा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें दर्शनशास्त्र के प्राय: सभी मुख्य घटकों का समावेश हो जाता है। ERE के अनुसार Metaphysics की कोई एक परिभाषा देना कठिन है। मुख्यत: उसमें ज्ञान और अस्तित्व की समस्या के बारे में विचार किया है। इस तथ्य को और अधिक बोधगम्य बनाने के लिए ERE ने इसे पुन: तीन भागों में विभक्त कर दिया है - 1. ज्ञान 2. अस्तित्व (प्रमेय) 3. तत्त्वमीमांसा का अन्य विषयों विशेष रूप से आचार और धर्म पर प्रभाव। It may suffice to state that the subjectofmetaphysicsis the most fundamental problems of the knowledge and reality. It will be convenient to divide the treatment of it into three parts:(1) the general nature ofknowledge (2) the conceptionofrealityanditschiefapplicationsand(3) thebearings of metaphysics on other subjects especially ethics and religion.' तत्त्वमीमांसा में इन सभी विषयों पर विचार किया जाता है। जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा एवं प्रमेय-मीमांसा अर्थात् द्रव्यमीमांसा बहुत समृद्ध और व्यापक हैं। दृष्टिवाद में समस्त नयवाद के बीजभूत तीन मातृकापद थे- 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' । हरिभद्रसूरी के अनुसार ये तीन मातृका पद तीन निषद्या हैं अर्थात् गौतम स्वामी के द्वारा जिज्ञासा किए जाने पर भगवान् महावीर ने इन तीन निषद्याओं का उपदेश दिया। इन तीन निषद्याओं के आधार पर गौतम स्वामी ने चौदह पूर्वो को ग्रहण किया। जिसके आधार पर गणधरों को यह ज्ञान हुआ कि 'सत्' उत्पाद्-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होता है। क्योंकि इसके बिना सत्ता नहीं रह सकती। इसी ज्ञान के आधार पर गणधरों ने द्वादश अंगों की रचना की।' 1. Encyclopeadia of Religion and Ethics, (Ed. Hastings James, New York, 1974)Vol. VIII P. 594. 2. दसकालियसुत्तं, नियुक्ति एवं चूर्णि सहित (संपा. मुनिपुण्यविजय, वाराणसी, 1973), पृ. 2, मातुयपदेक्कगं तं जहा-उप्पण्णेति वा भूते ति वा, विगते ति वा एते दिट्ठिवाते मातुयापदा....। 3. आवश्यकचूर्णि (हारिभद्रीया टीका),गाथा 735 पृ. 85, तत्र गौतमस्वामिना निषधात्रयेण चतुर्दशपूर्वाणिगृहीतानि। प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते । भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णेइवा विगमेइवाधुवेइवा । एताएव तिस्रो निषद्या:, आसामेव सकाशाद् गणभृताम् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् इति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सताऽयोगात् । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांगमुपरचयन्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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