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जैन आगम में दर्शन
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आवश्यकचूर्णि के अनुसार भी इन तीन निषद्याओं से चौदह पूर्व गृहीत हुए हैं।' निष्कर्ष यह है कि परम्परा 'सत्' की 'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता' का पूर्व साहित्य से सम्बन्ध मानती है। एक प्रकार से यह त्रिपदी पूर्व साहित्य और द्वादशांगी को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। इस दृष्टि से तत्त्व-मीमांसा के लिए इस त्रिपदी का महत्त्व स्वत: सिद्ध है। त्रिपदी में अन्तर्निहित अनेकान्त
उपर्युक्त त्रिपदी में अनेकान्त का बीज स्पष्ट रूप में अन्तर्निहित है, क्योंकि उत्पादव्यय अर्थात् अनित्यता और ध्रौव्य अर्थात् नित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं और इस त्रिपदी के द्वारा इन परस्पर विरोधी धर्मों का सत् में सहावस्थान प्रतिपादित किया गया है। इससे यह निष्कर्षसहज ही निकालाजासकता है कि सत् में नित्य-अनित्य के समान ही, सान्त-अनन्त, शाश्वत-अशाश्वत, एक-अनेक, सामान्य-विशेष जैसे विरोधी धर्म युगपद् एक ही वस्तु में रह सकते हैं। यही अनेकान्त का मूल है और यही जैन द्रव्य-मीमांसा का निर्देशक तत्त्व है। अनेकान्त के अभाव में आचार की अनुपपन्नता
जैन आचार्यों ने यह भी विस्तार से प्रतिपादित किया है कि वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक न मानने पर कर्म और कर्मफल की व्यवस्था भी नहीं बन पायेगी और सारी आचार-मीमांसा तथा धर्मका ढांचा ही ढह जाएगा। इस प्रकार जैनतत्त्व-मीमांसाका आचारमीमांसा से अविनाभाव सम्बन्ध है। अनेकान्त का आधार : अनुभव का प्रामाण्य
अनेकान्त के अनुसार वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते समय हमें किसी स्वत: सिद्ध तर्क (apriori logic) का आधार लेकर वस्तु के उसस्वरूप का अपलाप नहीं करना चाहिए जिसकी नित्यता और परिवर्तनशीलता सर्वजन प्रत्यक्ष है। अपितु अपने अनुभव को प्रमाण मानकर यह कहना चाहिए कि वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सहावस्थान भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सम्भव है। 1. आवश्यकचूर्णि, पृ. 370 तं कहं गहितं गोयमसामिणा ? तिविहं (तीहिं) निसेज्जाहिं चोद्दस पुळ्वाणि उप्पादिताणि।
निसेज्जा णाम पणिवतिउण जापुच्छा। 2. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैनन्याय का विकास, (जयपुर, 1977) 9.36-49,यहां पर आचार्य महाप्रज्ञ का अधिकांश
विवेचन आगम पर ही आधारित है। 3. आचार्य सम्मन्तभद्र एवं आचार्य हेमचन्द्र ने एकान्त अनित्यता के पक्ष में दोष दिखाते हुए यह स्पष्ट किया है कि किस प्रकार कृतप्रणाश तथा अकृत भोग इत्यादि दोष आने से सारी आचार-मीमांसा अस्त-व्यस्त हो जाएगी। अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका | 8, कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मतिभंगदोषान् उपेक्ष्य साक्षात्क्षणभंगमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते इसी प्रकार एकान्तवाद मानने पर कर्म सिद्धान्त द्वारा स्थापनीय सुख-दु:ख का भोग, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं हो पायेगी। वही, कारिका 27,नैकान्तवादे
सुखदु:खभोगौ, न पुण्यपापेन च बंधमोक्षौ। दुर्नीतिवाद-व्यसनासिनैवं, परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम्॥ 4. (क) Mookerjee Satakari, (Delhi, 1978) The Jain Philosophy of Non-absolutism PP. 3-22
(ख) मंगलप्रज्ञा समणी, आर्हती-दृष्टि, (चूरू, 1998) पृ. 131-160
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