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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 61 6-7. चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र विषयक विषय का निरूपण होने से इसे चन्द्रप्रज्ञप्ति कहा गया। यह छठा उपांग है। सूर्य सम्बन्धी विषय का वर्णन होने से सातवें उपांग का नाम सूर्यप्रज्ञप्ति है। वर्तमान में चंद्रप्रज्ञप्ति अनुपलब्ध है। मात्र उसका प्रारम्भिक थोड़ा-सा भाग उपलब्ध है। यद्यपि कुछ हस्तलिखित प्रतियां चन्द्रप्रज्ञप्ति के नाम से मिलती हैं। किन्तु प्रारम्भिक विवरण को छोड़कर अन्य सारा सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ही है। वर्तमान धारणा के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति अनुपलब्ध है, जो उपलब्ध है वह सूर्यप्रज्ञप्ति है। निरयावलिका (8-12) "प्रस्तुत आगम एक श्रुतस्कन्ध है। इसका प्राचीनतम नाम उपांग-प्रतीत होता है। जम्बूस्वामी के उपांग सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने उपांग के पांच वर्ग बतायेनिरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा । “निरयावलिका" का दूसरा नाम ‘कल्पिका' है। यह संभावना की जा सकती है कि 'उवंगा' के प्रथम वर्ग का नाम 'कल्पिका' था, किंतु नरक-परिणाम वाले कर्मों का वर्णन होने के कारण इसका दूसरा नाम 'निरयावलिका' रख दिया गया। इस प्रकार प्रथम वर्ग के दो नाम हो गए-निरयावलिका और कल्पिका। निरयावलिका श्रुतस्कन्ध का प्रतिपाद्य विषय है-शुभ-अशुभ आचरण, शुभअशुभ कर्म और उनका विपाक।। संभवत: निरयावलिका से वृष्णिदशा तक के पांच उपांग पहले एक ही ग्रन्थ के रूप में रहे हो। जब उपांगों के संदर्भ में बारह की संख्या योजित की तब उनका अलग से परिगणन होने लगा हो। यह विंटरनित्ज़ का अभिमत है।' 9. कल्पावंतसिका-इसमें पद्म, महापद्म नाम के दस अध्ययन हैं, उनमें से इन्हीं नाम वाले दस राजकुमारों का वर्णन है। 10. पुष्पिका में भी चन्द्र, सूर आदि दस अध्ययन हैं। 11. पुष्पचुला में भी सिरि, हिरि आदि दस अध्ययन हैं। 12. वृष्णेिदशा में निषढ, माअणि आदि बारह अध्ययन हैं। इन सभी उपांगों में पौराणिक कथानकों का वर्णन हुआ है। उन पात्रों के इहभव-परभव की स्थिति का उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथों में है। 1. उवंगसुत्ताणि 4, (खण्ड- 2) भूमिका पृ. 3 5. 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature P. 440: Upangas 8-12 are sometimes also comprised as five sections of one textentitle Nirayavali-Suttam. Probably, they originally formed one text, the tive sections of which were then counted as five different texts, in order to bring the number of Upanga up to twelve. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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