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________________ 62 जैन आगम में दर्शन मूलसूत्र 1. अंग 2. उपांग 3. मूल और 4. छेद - यह वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। विक्रम की 1 3 - 1 4 वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। मूल सूत्रों की संख्या और नामों के संदर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहां तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है, इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एकमत से मूलसूत्र माना है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। वे नंदी और अनुयोग द्वार को मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। ये ग्रन्थ मूलसूत्र क्यों कहे जाते हैं, इसका स्पष्टीकरण उपलब्ध नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार 'चूर्णिकालीन श्रुत-पुरुष की स्थापना के अनुसार मूल स्थानीय (चरण-स्थानीय) दोसूत्र हैं - 1.आचारांग और 2. सूत्रकृतांग । परन्तु जिस समयपैंतालीस आगमों की कल्पना स्थिर हुई, उस समय श्रुत-पुरुष की स्थापना में भी परिवर्तन हुआ और श्रुत-पुरुष की अर्वाचीन प्रतिकृतियों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन-ये दो सूत्र चरण स्थानीय माने जाने लगे।' उपर्युक्त अवधारणा से मूल का अर्थ हो जाता है-चरण । उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक को चरण स्थानीय मानकर मूल कहा जा सकता है किन्तु मूलसूत्रों की कम-से-कम चार संख्या तो सबने मानी है, कुछ ने अधिक भी मानी है। उन अन्य ग्रन्थों का मूलसूत्र में समावेश करने की युक्ति अब भी अन्वेषणीय है। अंग और उपांग की संख्या सभी श्वेताम्बर जैनों ने एक जैसी मानी है किन्तु मूल, छेद आदि संख्या में उनमें मतैक्य नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक के अनुसार मूलसूत्र- 1. उत्तराध्ययन 2. दशवैकालिक 3. आवश्यक 4. पिण्डनियुक्ति किसी ने ओघनियुक्ति को भी मूल माना है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी के अनुसार मूल सूत्र-1. उत्तराध्ययन 2. दशवैकालिक 3. अनुयोगद्वार एवं 4. नंदी है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा अनुयोगद्वार एवं नंदी को चूलिका सूत्र के अन्तर्गत मानती है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा अनुयोगद्वार एवं नंदी को आगम श्रृंखला में स्वीकार करती है भले ही उनका समावेश भिन्न-भिन्न प्रकार से क्यों न किया गया हो। 1. उत्तरज्झयणाणि (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1993) भूमिका, पृ. 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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