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________________ 60 जैन आगम में दर्शन 2. राजप्रश्नीय-प्रस्तुत आगम का क्रम उपांग नम्बर दो पर है। यह सूत्रकृतांग के उपागं के रूप में स्वीकृत है। नंदी में इसको रायपसेणिय नाम से अभिहित किया है। राजा प्रदेशी द्वारा पृष्ट प्रश्न तथा केशीकुमार द्वारा प्रदत्त समाधानों का इसमें संग्रहण है इसलिए इसे राज प्रश्नीय कहा जाता है। इस आगम में सूरियाम एवं पएसि कहाणग नाम के दो प्रकरण हैं। प्रदेशी कथानक में जीव सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण विचार है। आत्मा के वजन सम्बन्धी विचार भी वहां पर है। 3.जीवाजीवाभिगम-प्रस्तुत आगम संख्या क्रम में तीसरा उपांग है। इसका सम्बन्ध स्थानांग से है। जीवाजीवाभिगम नाम से ही इसकी विषय वस्तु का स्पष्ट अवबोध हो जाता है। जीव एवं अजीव इनदोमूलभूत तत्वों का इसमें विशेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। इस आगम के प्रारम्भ में प्राप्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह स्थविरों द्वारा कृत रचना है। 4. प्रज्ञापना-उपांग साहित्य के क्रम में प्रज्ञापना का चतुर्थ स्थान है। इसमें छत्तीस पद हैं। इसमें प्रश्नोत्तर शैली सेतत्त्व का प्रपिपादन किया गया है अतः इसका प्रज्ञापना नाम सार्थक है। इस ग्रन्थ के प्रथम पद का नाम भी प्रज्ञापना है। इस आदि पद के कारण भी संभवतः यह आगम प्रज्ञापनानामसे प्रसिद्ध होगया है। इसमें मुख्य रूपसेजीवएवं अजीव तत्त्वकी विमर्शना है। जीव-अजीवसे सम्बन्धित विषय जैसे जीव के विभाग, लेश्या, कर्म आदि पर गहन विचार हुआ है। यह जैन तत्त्वविद्या का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रज्ञापना का वैशिष्ट्य इसी बात से ज्ञात हो जाता है कि आगम संकलनकार देवर्धिगणी ने प्रज्ञापना के अनेक विषयों का समाहार भगवती में किया है। प्रज्ञापना के कर्ता के रूप में आचार्य श्याम का नाम प्रसिद्ध है। विद्वान् इसका संभावित रचनाकाल वीर निर्वाण के 335 से 375 के मध्य मानते हैं। प्रज्ञापना को चालू परम्परा में समवायांग का उपांग माना जाता है, किन्तु इसकी विषय वस्तु आदि के अवलोकन के आधार पर आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा कि "प्रज्ञापना को भगवती का उपांग माना जाता तो अधिक बुद्धिगम्य होता।'' 5. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-अंगो की तरह उपांगों का भी क्रम निर्धारित है। प्रस्तुत आगम पांचवा उपागं है। इसको क्रम संख्या के अनुसार भगवती का उपांग माना जाता है। इसमें जम्बूद्वीप का विषय निरूपित हुआ है अतः इसका नाम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है। 1. नंदी, सूत्र, 77 2. (क) रायपसेणियवृत्ति, पृ. 1 : अथ कस्माद् इदमुपांगं राजप्रश्नीयाभिधानमिति? उच्यते, इह प्रदेशिनामा राजा भगवत: केशिकुमार-श्रमणस्य समीपे यान् जीवविषयान् प्रश्नानकार्षीत्, यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान्। (ख)रायपसेणियवृत्ति, पृ. 2 : राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयम् । 3. उवंगसुत्ताणि (खण्ड-4) (जीवाजीवाभिगमे) (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1987)1/। 4. वही, 4 (खण्ड - 2) भूमिका पृ. 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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