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आगम साहित्य की रूपरेखा
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पर्व का मध्यवर्ती भाग गण्डिका कहलाता है वैसे ही जिस ग्रन्थ में एक व्यक्ति का अधिकार होता है उस ग्रन्थ की संज्ञा गण्डिका या कण्डिका है।
चूलिका को आज की भाषा में परिशिष्ट कहा जा सकता है। चूर्णिकार ने बताया है कि परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो नहीं बतलाया है वह चूलिका मे बतलाया गया है। हरिभद्रसूरि के अनुसार चूलिका में उक्त और अनुक्त दोनों का ही उल्लेख है।'
द्वादशांगो का यह अंतिम अंग वर्तमान में अनुपलब्ध है। अंग बाह्य आगम __ जैन आगम साहित्य का प्राचीन वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो विभागों में उपलब्ध है। उपांग नाम का वर्गीकरण प्राचीनकाल में नहीं था। नंदीसूत्र में उपांग का उल्लेख नहीं है। नंदी से पहले के भी किसी आगम में उपांग की कोई चर्चा नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य में उपांग शब्द का प्रयोग मिलता है।' उपलब्ध प्रयोगों में सम्भवत: यह सर्वाधिक प्राचीन है किंतु यहां द्रष्टव्य है कि तत्त्वार्थभाष्य में श्रुतज्ञान के अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट ये दो भेद किए हैं तथा संभव है वहां अंगबाह्य के लिए उपांग शब्द का प्रयोग हुआ हो किंतु अंगबाह्य के भेदरूप में जिन ग्रन्थों का नाम वहां उल्लिखित है उनमें से एक भी नाम वर्तमान में प्रचलित उपांगों का नहीं है अत: नाम साम्य के आधार पर हम उपांग व्यवस्था को तत्त्वार्थभाष्य जितनी प्राचीन नहीं मान सकते। भाष्यकार एक स्थान को छोड़कर सर्वत्र अंगबाह्य शब्द का ही प्रयोग करते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि वर्तमान में प्रचलित आगम वर्गीकरण की व्यवस्था पर्याप्त अर्वाचीन है। वर्तमान में जिन उपांगों का उल्लेख है तथा उनका सम्बन्ध क्रमश: एक-एक अंग के साथ जोड़ा गया है इसकी चर्चा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति तथा निरयावलिका के वृत्तिकार श्रीचन्द्रसूरि द्वारा रचित सुखबोधा समाचारी नामक ग्रन्थ में मिलती है। संभव है इन उत्तरवर्ती आचार्यों ने 'उपांग' शब्द का ग्रहण तत्त्वार्थभाष्य से कर लिया हो तथा वैदिक साहित्य में वेद में अंग, उपांगों का उल्लेख है, अत: वैसी ही किसी व्यवस्था को ध्यान में रखकर अंगों के साथ उपांगों की योजना की हो।
वर्तमान में मान्य बारह उपांगों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।
1.औपपातिक-प्रस्तुत आगम बारह उपांगों में प्रथम उपांग है। इसको आचारांग का उपांग माना जाता है। इसके समवसरण एवं औपपातिक नाम के दो प्रकरण हैं। मुख्य वर्ण्यविषय इसका पुनर्जन्म है। उपपात मुख्य प्रतिपाद्य होने से ही इसका नाम औपपातिक हुआ है।
नंदी पृ. 185 सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र (संपा. पं. खूबचन्द्र, अगास, 1932) 1/20 : तस्य च महाविषयत्वात्तांस्तान
नधिकृत्य प्रकरणसमाप्त्य-पेक्षमंगोपांगनानात्वम् । 3. सुखबोधा सामाचारी, पृ. 34
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