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जैन आगम में दर्शन
दृष्टिवाद
__ यह द्वादशांगी का बारहवां अंग है किंतु वर्तमान में अनुपलब्ध है। दिट्ठिवाय के संस्कृत रूप दो किए गए हैं- 1. दृष्टिवाद 2. दृष्टिपात। प्रस्तुत अंग में विभिन्न दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण है इसलिए इसकी संज्ञा दृष्टिवाद है। इसका दूसरा अर्थ है कि इसमें सब दृष्टियों का समपात है इसलिए इसका नाम दृष्टिपात है। स्थानांग में दृष्टिवाद के दस नाम बतलाए गए हैं-1. दृष्टिवाद 2. हेतुवाद 3. भूतवाद 4. तत्त्ववाद (तथ्यवाद) 5. सम्यक्वाद 6. धर्मवाद 7. भाषा विचय 8. पूर्वगत 9. अनुयोगगत 10. सर्वप्राणभूत-जीवसत्त्वसुखावह।
दृष्टिवाद के पांच प्रकार अथवा पांच अर्थाधिकार बतलाए गए हैं- 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वगत 4. अनुयोग 5. चूलिका।
परिकर्म का अर्थ योग्यता पैदा करना है। जैसे गणित के सोलह परिकर्म होते हैं उनके सूत्र और अर्थ का ग्रहण करने वाला शेष गणित के अध्ययन के योग्य बन जाता है। इसी प्रकार परिकर्म के सूत्र और अर्थ को ग्रहण करने वाले में सूत्र, पूर्वगत आदि के अध्ययन करने की योग्यता आ जाती है।
परिकर्मकेमूलभेद और उत्तरभेद विच्छिन्न हैं। उनकी सूत्र और अर्थपरम्परादोनों उपलब्ध नहीं है। चूर्णिकार ने इतना संकेत किया है कि वे अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार वक्तव्य है।
सूत्र के बावीस प्रकार बतलाए गए हैं। चूर्णिकार के अनुसार इन सूत्रों से सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय, सर्वनय और सर्वभंगों की विकल्पना जानी जाती है। ये पूर्वगत श्रुत और उसके अर्थ के सूचक हैं। इसलिए इन्हें सूत्र कहा गया है। ___पूर्वगत-पूर्वशब्द के अनेक तात्पर्यार्थ बतलाए गए हैं--1. तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्तन के काल में सर्वप्रथम पूर्वगत के अर्थ का निरूपण करते हैं। उस अर्थ के आधार पर निर्मित ग्रन्थ पूर्व कहलाते हैं। पूर्वो की संख्या चौदह हैं- 1. उत्पाद 2. अग्रायणीय 3. वीर्य 4. अस्तिनास्तिप्रवाद 5. ज्ञानप्रवाद 6. सत्य प्रवाद 7. आत्मप्रवाद 8. कर्म प्रवाद 9. प्रत्याख्यान । 0. विद्यानुप्रवाद 11. अवन्ध्य 12. प्राणायु 1 3. क्रियाविशाल एवं 14. लोकबिन्दुसार।'
अनुयोग के दो विभाग प्राप्त हैं1. मूलप्रथमानुयोग- इसमें अर्हत् का जीवन वर्णित है। 2. गण्डिकानुयोग (कण्डिकानुयोग)-इसमें कुलकर आदि अनेक व्यक्तियों के जीवन
का वर्णन है। गण्डिकानुयोग केवल जीवन का वर्णन करने वाला ग्रन्थ नहीं है किंतु वह इतिहास ग्रन्थ । भी है। चूर्णिकार तथा मलयगिरि ने 'गण्डिका' का अर्थ खण्ड किया है। ईख के एक पर्व से दूसरे
1. नंदी पृ. 181-182
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