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कर्ममीमांसा
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उद्गम की जिज्ञासा
सभी शास्त्रों का प्रारम्भ प्राय: किसी-न-किसी जिज्ञासासे होता है। ब्रह्मसूत्र का प्रारम्भ सृष्टि के मूल कारण की जिज्ञासा से हुआ। मीमांसासूत्र का प्रारम्भ धर्म अर्थात् कर्तव्य की जिज्ञासा से हुआ-अथातो धर्मजिज्ञासा। सांख्य दर्शन का प्रारम्भ दु:ख निवृत्ति के उपायों की जिज्ञासा से हुआ है। वैसे ही आचारांग सूत्र का प्रारम्भ भी साधक अपने मूल उद्गम को जानने की इच्छा से करता है। मैं कहां से आया हूं। आचारांग का प्रवक्ता पुनर्जन्म के अस्तित्व में संदिग्ध नहीं है। उसका संकेत पुनर्जन्म के अस्तित्व के संदर्भ में विद्यमान अज्ञान की ओर है। उसका अभिमत है कि बहुत से व्यक्तियों को यह ज्ञान ही नहीं है कि उनकी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है अथवा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है। पूर्वजन्म की ज्ञप्ति के हेतु
आचारांग में पूर्वजन्म को जानने के तीन हेतुओं का निर्देश हुआ है - 1. स्वस्मृति, 2. परव्याकरण 3. दूसरों के पास से सुनना।'
1. स्वस्मृति - जाति स्मृति के उत्पन्न होने का एक हेतु है - स्वस्मृति । स्वयं अपने आप अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो जाने को स्वस्मृति कहते हैं। बहुत से ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनको बाल्यावस्था में ही अपने पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।
2. पर व्याकरण- किसी (आप्त) ज्ञानी व्यक्ति के साथ प्रश्नोत्तरपूर्वक विचार-विमर्श से किसी को पूर्व जन्म की स्मृति हो जाती है। पर का अर्थ है जिन। जिन केवली होते हैं। त्रिकालवित् होते हैं। उनके द्वारा पूर्वजन्म की स्मृति भी करवा दी जाती है। जैसे भगवान महावीर ने मेघकुमार को पूर्वजन्म का बोध करवाकर पुनः उसे संयम में स्थिर कर दिया था।
3. अन्य के पास श्रवण- विशिष्ट ज्ञानी के द्वारा निरूपित तथ्य को सुनकर किसी को पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है। पूर्वजन्मस्मृति के हेतु
कुछ व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात नहीं होती लेकिन निमित्त मिलने पर वह उबुद्ध हो जाती है।
1. ब्रह्मसूत्रम् (संपण. उदयवीर शास्त्री, दिल्ली, 1991) 1/1/1 अथातो ब्रह्मजिज्ञासा 2. मीमांसादर्शनम् (संपा. उदयवीर शास्त्री, दिल्ली, 1991) 1/1/1 3. सांख्यकारिका, श्लोक, 1 दु:खत्रयाभिधाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ 4. आयारो ।/1 5. वही, 1/3 सेनं पुण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा। 6. आचारांग निर्युक्त, गाथा 66 परवइवागरणं पुण जिणवागरणं जिणा परं नत्थि ।
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