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विषय-प्रवेश
आकृष्ट होकर चिपकने वाले कर्म-पुद्गल हैं । कर्मों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे बन्ध कहते हैं। बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश-ये चार भेद हैं। प्रकृति बंध के ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार हैं। जैन परम्परा में ये ही अष्ट कर्म के रूप में प्रसिद्ध हैं। कर्म की मूल आठ प्रकृतियां हैं। उनके भेद-प्रभेद अनेक हैं।
जैन दर्शन के अनुसार कृत कर्मों का फल-भोग किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है।
कडाण कम्माण णत्थि मोक्खो। जो कर्म किए हैं उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। जैन मान्यता के अनुसार कुछ कर्म नियत विपाकी होते हैं, कुछ अनियतविपाकी होते हैं। जो कर्म नियतविपाकी हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता | जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार उन्हें निकाचित कर्म कहा जाता है। अनियत-विपाकी कर्म उन्हें कहा जाता है, जिनके स्वभाव, समय, रस आदि में परिवर्तन किया जा सकता है। जैन दर्शन में कर्म की दस अवस्थाओं का उल्लेख है। उनमें से उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण, उपशमन की अवस्थाएं कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैन दर्शन के अनुसार कर्म सर्व शक्तिमान नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के माध्यम से उसकी शक्तियां ससीम बनती हैं। कर्म में परिवर्तन के सिद्धांत को मान्य कर जैन दर्शन ने पुरुषार्थ की अवधारणा को वरीयता प्रदान की है।
जैन आगम साहित्य में कर्म को चैतन्यकृत माना गया है - चेयकडा कम्मा। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनके दर्शन के अनुसार जीव अपने प्रयत्न से ही कर्म का बन्ध करता है। कर्मबन्ध, नियति आदि तत्त्वों से जुड़ा हुआ नहीं है। कर्मबन्ध के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है। भगवान् महावीर ने जीव के पारिणामिक भाव को कर्म से मुक्त बतलाया है। उससे जीव को निरन्तर कर्म मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होती है और जीव का पुरुषार्थ कर्म के परिवर्तन में भी सक्षम बना रहता है।
आधुनिक विज्ञान जगत् में आज नवीन-नवीन प्रयोग हो रहे हैं। लिंग परिवर्तन की घटनाएं यदा-कदा सुनने में आती रहती हैं। जैन कर्म सिद्धांत की भाषा में वह नामकर्म की प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण है। इसी प्रकार क्लोनिंग, टेस्ट-ट्यूब बेबी आदि से सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान जैन कर्मवाद के आलोक में खोजा जा सकता है।
कर्म मीमांसा नामक प्रस्तुत अध्याय में हमने कर्म की दार्शनिक अवधारणाओं तक ही अपने आपको सीमित रखा है। इस अध्याय में जीव-कर्म सम्बन्ध. कर्म का कर्ता, चलित अचलित कर्म, अनुदीर्ण एवं उदीरणा योग्य कर्म, दु:ख का स्पर्श किसको, नोकर्म की निर्जरा आदि कर्म-संबंधित विभिन्न विषयों पर विचार किया गया है।
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