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जैन आगम में दर्शन
वैविध्य एवं वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक व्याख्या ही कर्म सिद्धांत के उद्भव का हेतु बनी है। भारतीय चिन्तकों ने जगत् के कारण की मीमांसा के संदर्भ में काल, स्वभाव, नियति आदि विभिन्नवाद उपस्थित किए हैं। जैन दर्शन ने स्पष्ट रूप से जगत् के वैविध्य का प्रमुख कारण कर्म को ही स्वीकार किया है।
कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया अर्थात् प्रवृत्ति है । मन, वचन एवं शरीर के द्वारा की जाने वाली सम्पूर्ण क्रिया को कर्म कहा जा सकता है। मीमांसक परम्परा में यज्ञ-यागादि, नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को कर्म की संज्ञा दी गई है। गीता में कायिक प्रवृत्तियों को कर्म कहा है। योग एवं वेदान्त दर्शन को भी कर्म के विशिष्ट अर्थ के साथ उसका क्रियात्मक अर्थ भी मान्य है। बौद्ध दर्शन में भी मन, वचन एवं काया की क्रिया के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव की प्रत्येक क्रिया तथा उस क्रिया के प्रेरक तत्त्व भी कर्म कहलाते हैं। जैन परिभाषा में इनको भावकर्म कहा जाता है । इसी भावकर्म के द्वारा जो पुद्गल आकर आत्मा के चिपक जाते हैं उनको जैन दर्शन में द्रव्यकर्म कहा जाता है - 'आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म' आत्मा की शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट तथा कर्म रूप में परिणत होने के योग्य पुद्गलों को कर्म कहते हैं। जैन दर्शन में आठ वर्गणाएं स्वीकृत हैं। उनमें एक है कार्मण वर्गणा । कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों से ही कर्म का निर्माण हो सकता है। वे पुद्गल स्कन्ध चतु:स्पर्शी होते हैं। अनन्त प्रदेशी कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से ही द्रव्य कर्म का निर्माण हो सकता है। इससे भिन्न पुद्गलों में कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य कर्म पौद्गलिक होते हैं, भौतिक होते हैं | कर्म को पौद्गलिक मानने की अवधारणा जैन दर्शन की मौलिक स्वीकृति है। अन्य दर्शनों में कर्म को मात्र चैतसिक माना गया है। जैन के अनुसार कर्म चैतसिक तो हैं ही किन्तु भौतिक भी हैं।
जैन परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य भारतीय दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, आशय, अदृष्ट आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदान्त दर्शन में माया एवं अविद्या, मीमांसा में अपूर्व, न्याय-वैशेषिक में अदृष्ट, योग में आशय, बौद्ध दर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग कर्म अर्थ में हुआ है। यद्यपि चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों में कर्म पर विचार हुआ है किन्तु कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों का - कर्म का स्वरूप, कर्म-बन्धन, कर्म-फल, कर्म-स्थिति आदि विषयों का जितना सूक्ष्म एवं सर्वांगीण विवेचन जैन दर्शन में मिलता है, उतना अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं है।
प्रस्तुत प्रबन्ध के कर्म-मीमांसा नामक अध्याय में हमने जैन कर्म सिद्धांत सम्बन्धी मुख्य अवधारणाओं पर विमर्श किया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म के दो प्रकार हैं .... द्रव्यकर्म और भावकर्म । भावकर्म आत्मा की प्रवृत्ति है एवं द्रव्यकर्म उस प्रवृत्ति के द्वारा
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