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विषय-प्रवेश
जैन दर्शन में सिद्ध और संसारी के भेद से जीव के दो भेद किए गए हैं। संसारी आत्मा कर्मयुक्त है अत: वह पुनर्जन्म करने वाली होती है। वह नानाविध शरीरों को धारण करती है
और नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है। संसारी आत्माओं के अनेक भेद हो जाते हैं। मुख्य रूप से उनका विभाजन षड्जीवनिकाय के रूप में जैन दर्शन में प्राप्त है, जो जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है।
इस अध्याय में आत्मतत्त्व पर विभिन्न दृष्टिकोण से विमर्श किया गया है। आत्मा के संसारी स्वरूप की व्याख्या व्यवहारनय से एवं शुद्ध स्वरूप की व्याख्या निश्चय नय से की जा सकती है। जैन आचार-मीमांसा के संदर्भ में आत्माद्वैत की अवधारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संग्रहनय की वक्तव्यता के अनुसार आत्म-एकत्व का भी आगमों में प्रतिपादन है - 'तुमंसि नाम सच्चेवजं हंतव्वं ति मन्नसि'।
"जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे आज्ञा में रहने को बाध्य करता है, वह तू ही है' इत्यादि। आचारांग की यह उद्घोषणा आत्माद्वैत की सहज स्वीकृति है। तेरी और मेरी आत्मा में स्वरूपगत कोई भेद नहीं है। यह स्वरूपगत आत्माद्वैत का सिद्धान्त जैन आचार का महत्त्वपूर्ण आयाम है। सम्पूर्ण जीवों को आत्मवत् मानने का तात्पर्य यही है कि सभी जीव समान है। उनमें स्वरूपगत ऐक्य है, अत: जैन दर्शन नानात्मवादी होने पर भी अनेकान्त दृष्टि से वह किसी अपेक्षा से आत्माद्वैतवादी भी है। षड्जीवनिकाय की व्याख्या इस अध्याय में विस्तार से की गई है। बस-स्थावर की अवधारणा, जीवास्तिकाय का वर्णन, जीवस्वरूप आदि का विमर्श आत्मा के संदर्भ में एक नई दृष्टि प्रदान करने वाला है।
आत्म-विचारणा का तात्पर्य है अपने अस्तित्व की विचारणा। जब व्यक्ति अपने स्वाभाविक अस्तित्व के प्रति जागरूक बनता है तब अनेक अकरणीय कृत्यों से स्वयं विमुख बन जाता है। आत्म-स्वीकृति का सिद्धान्त दार्शनिक मान्यताओं के संदर्भ की तरह ही व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कर्म-मीमांसा
भारतीयदार्शनिकों ने अनेक विषयों पर चिन्तन किया है। आत्मा, बन्ध,मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म आदि विषय उनकी विचारणा के बिन्दु रहे हैं। यह दृश्यमान चराचर जगत् हमारे सामने हैं, किन्तु यह क्यों है? इसमें विविधता क्यों है? इन प्रश्नों का समाधायक तत्त्व हमारे सामने नहीं है। जो कारण प्रत्यक्ष नहीं होता उसके बारे में जिज्ञासा होनी भी स्वाभाविक है। जगत् रूप कार्य हम सबके प्रत्यक्ष का विषय है किन्तु इसका कारण प्रत्यक्ष नहीं है। इसके कारण की खोज में दार्शनिक जगत् में नए-नए प्रस्थानों का आविर्भाव हुआ।
कर्म सिद्धांत का प्रादुर्भाव सृष्टि-वैचित्र्य, वैयक्तिक भिन्नता एवं व्यक्ति की सुखदु:खात्मक अनुभूतियों के कारण की व्याख्या के प्रयत्नों के मध्य ही हुआ है। वस्तुत: जगत्
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