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जैन आगम में दर्शन
परस्पर मतभेद हैं। सांख्य आत्मा को अनेक, अपरिणामी एवं व्यापक मानता है। न्यायवैशेषिक का भी यही मन्तव्य है। यद्यपि न्याय-वैशेषिक सांख्य के समान आत्मा को स्वरूपत: चेतन नहीं मानता। ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म मानता है। मीमांसा-दर्शन आत्मा में परिणमन स्वीकार करता है। श्लोकवार्तिक में स्वर्ण की अवस्थाओं में भेद की तरह पुरुष की अवस्थाओं में भी भेद माना गया है -
तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः ।
पुरुषोऽभ्युपगन्तव्य: कुण्डलादिषु स्वर्णवत्।। अन्य वैदिक दर्शनों में आत्मा को कूटस्थ नित्य माना गया है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा अनेक नहीं है। वह एक ही है। सोपाधिक अवस्था में आत्मा भिन्नभिन्न प्रतीत होती है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक, चैतन्य स्वरूप, ज्ञानवान है। वे अनंत हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। संसारावस्था की तरह ही मुक्तावस्था में भी उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। वे परिणामी नित्य एवं देह परिमाण हैं। व्यापक नहीं हैं। संसारावस्था में आत्मा एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करती रहती है। संसार-भ्रमण का मूल हेतु कर्म है। कर्ममुक्त होने के बाद आत्मा अपने ऊर्ध्वगमन के स्वभाव के कारण लोकान्त तक पहुंच जाती है, लोक के बाहर धर्मास्तिकाय न होने से वह अलोक में नहीं जा सकती । संसारी अवस्था में आत्मा शरीरयुक्त होती है। मुक्त होते समय वह यहां शरीर का त्याग कर लोकान्त में सिद्ध हो जाती है। 'इह बोंदिं चइत्ताणं तत्थ गन्तूण सिज्झई' इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैनों की जैनेतर दर्शन से भिन्न अपनी मौलिक अवधारणा है।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । वह सांख्य की तरह प्रकृति का धर्म तथा न्याय-वैशेषिक की तरह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है। आत्मा ज्ञाता है -
जे आया से विण्णाया।
जे विण्णाया से आया। आत्मा ज्ञान से ज्ञेय को जानती है। ज्ञान उसका गुण है। आत्मा और ज्ञान में परस्पर गुणी-गुण भाव सम्बन्ध है। गुण गुणी से सर्वथा न भिन्न होता है न अभिन्न होता है अत: उसका गुणी के साथ भेदाभेद सम्बन्ध है।
सुख-दु:ख का कर्तृत्व आत्मा का स्वयं का है तथा उसकी फल-भोक्ता भी आत्मा ही है। कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व जैन के अनुसार आत्मा के ही धर्म हैं। वे औपचारिक नहीं हैं।
अप्पा कत्ता विकत्ता य। दुहाण य सुहाण य॥
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