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विषय-प्रवेश
विस्रसा, (स्वभाव) प्रयोग एवं मिश्र परिणाम के माध्यम से जीवकृत एवं अजीव निष्पन्न सृष्टि संचालित होती रहती है। इस अवधारणा का तृतीय अध्याय में विस्तार से वर्णन हुआ है।
जैन दर्शन का परमाणु नैयायिक-वैशेषिक की तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के भेद से चार प्रकार का नहीं है। परमाणु का एक ही प्रकार है। वे संख्या में अनन्त हैं। उनके विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से विभिन्न प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति होती है। विविध पदार्थों की उत्पत्ति के लिए विविध प्रकार के परमाणु मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह जैन दर्शन का अभ्युपगम है। आत्म-मीमांसा
तृतीय अध्याय में अचेतन द्रव्यों का विवेचन किया गया है। आत्म-मीमांसा नामक चतुर्थ अध्याय में चेतन द्रव्य अर्थात् आत्मा पर विचार किया गया है।
आत्मा न केवल जैन दर्शन का अपितु सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों का आधारभूत तत्त्व है। दार्शनिक जगत् में दृश्य और मूर्त पदार्थ की भांति अदृश्य तथा अमूर्त पदार्थ की खोज निरन्तर चालू रही है। मानव का मन सिर्फ दृश्य जगत् को देखने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने क्षितिज के उस पार भी झांकने/देखने का प्रयत्न भी किया। इस प्रयत्न की फलश्रुति है अदृश्य एवं अमूर्त पदार्थों का अभ्युपगम ।
आत्म-तत्त्व की अन्वेषणा भी इसी दृष्टिवालों ने की। दृश्य जगत् के पार देखने वालों ने आत्मा को स्वीकार किया। जिनकी दृष्टि इन्द्रिय और मन पर ही टिकी रही, उनकी दृष्टि इस दृश्य जगत् से बाहर के तत्त्वों को नहीं खोज सकी, फलस्वरूप आत्मा के अस्तित्व एवं नास्तित्व का अभ्युपगम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। आत्मा के अस्तित्व को नकारने में सबसे अधिक प्रसिद्धि बृहस्पति अर्थात् चार्वाक मत को मिली। सूत्रकृतांग सूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समय भी अनेक भूतवादी सम्प्रदाय थे जो भूतों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। आगमयुग में अजितकेशकम्बल आदि चिंतक आत्मा का निषेध करने वालों में अग्रणी थे। उनका मन्तव्य था कि भूतों से अतिरिक्त किसी अन्य स्वतंत्र आत्म-तत्त्व का अस्तित्व नहीं है - "इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते,नपुनस्तेभ्योव्यतिरिक्तोभवान्तरयायीयथोक्तलक्षण:कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्।" इन भूतवादियों के अतिरिक्त उपनिषद्, सांख्य, न्याय वैशेषिक, मीमांसक तथा जैन ये सारे दर्शन आत्मवादी हैं । यद्यपि बौद्ध दर्शन अपने आपको अनात्मवादी ,कहता है तथापि वह आत्मवादियों के समान ही पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल के अस्तित्व को स्वीकार करता है।
जैसा कि हमने ऊपर कहा भूतवादी दार्शनिकों के अतिरिक्त अन्य भारतीय दर्शन एक स्वर से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं किंतु उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें
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