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________________ 12 जैन आगम में दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में आरोहण करने के लिए कर्म-सिद्धांत का मनन एवं उसके निर्देशों की अनुपालना आवश्यक है। अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धांत के बिना नहीं की जा सकती। जो अध्यात्म के आनन्द का आस्वाद चाहता है उसको कर्म सिद्धांत की अतल गहराइयों में डुबकी लगाना आवश्यक है। आचार-मीमांसा . तृतीय अध्याय में तत्त्वमीमांसा, चतुर्थ अध्याय में आत्म-मीमांसा तथा पञ्चम अध्याय में कर्म-मीमांसा करने के अनन्तर षष्ठ अध्याय में आचार-मीमांसा की गई है। जैन सिद्धांत है कि ‘पढमं नाणं तओ दया' अर्थात् ज्ञान के अनन्तर चारित्र आता है। अभिप्राय यह है कि चारित्र की पृष्ठभूमि तत्त्वज्ञान है। तत्त्व-मीमांसा में जड़-चेतन के निरूपण के अनन्तर कर्मवाद के अन्तर्गत उनके परस्पर बन्धन का हेतु समझ में आता है और तब ही उस बन्धन से मुक्ति की जिज्ञासा उदित होती है। जिसका उपाय चारित्र है। मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते समय तत्त्वार्थ सूत्र ने चारित्र को दर्शन तथा ज्ञान के अनन्तर रखा है। क्योंकि चारित्र ही मुक्ति का साक्षात् हेतु है। हमने भी इसी क्रम का अनुसरण किया है। जैन परम्परा में चारित्र के दो आयाम हैं - निश्चय और व्यवहार। निश्चय आचार आत्माश्रित है, व्यवहार आचार पराश्रित है। आत्माश्रितो निश्चय: पराश्रितो व्यवहारः। आधुनिक भाषा में निश्चय को व्यष्टिगत तथा व्यवहार को समष्टिगत कह सकते हैं। अनेकान्त की दृष्टि में ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें कोई भी उपेक्षणीय नहीं है। एक दूसरी दृष्टि से चारित्र के दो आयाम हैं - निवृत्ति तथा प्रवृत्ति । मन, वचन, काय की निवृत्ति त्रिगुप्ति है तथा सर्वविध प्रवृत्ति में प्रमाद का अभावपंचसमिति है। त्रिगुप्तितथापंचसमिति मिलकर अष्ट प्रवचन मातृका कहलाती हैं अर्थात् इसमें समस्त जैन आचार समाहित है। संयत प्रवृत्ति निर्जरा के साथ पुण्य के आश्रव का कारण भी है तथा निवृत्ति संवर का कारण है। पुण्य का आश्रव भी अन्ततोगत्वा बन्धन ही है, अत: आश्रव एषणीय नहीं है, एषणीय तो संवर ही है - आश्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम्। इतीयमाहतीदृष्टिरन्यदस्या: प्रपञ्चनम् ॥ तथापि साधना की अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक प्रवृत्ति बनी ही रहती है। इस वास्तविकता को स्वीकार करके जैनागमों में आचार मीमांसा के अन्तर्गत प्रवृत्ति में सावधानी बरतने की बात पर बहुत बल दिया गया है। विशेषकर श्रावक तो सांसारिक जीवन जीते हुए सभी प्रकार की प्रवृत्ति करता है इसलिए उसे हर प्रकार की प्रवृत्ति में विवेक रखने की बात श्रावकाचार के अन्तर्गत बताई गई है। साधु की प्रवृत्ति सीमित है तथापि उसके लिए भी पूरी सावधानी रखने की बात की गई है। उदाहरणत: भिक्षाचर्या में पूर्ण विवेक रखने की बात जैनागमों में बहुत विस्तार से है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैनाचार मीमांसा पूर्णत: व्यावहारिक है। सिन्द्रांतत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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