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विषय-प्रवेश
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इस आचार-मीमांसा का आधार आत्मौपम्य अर्थात् जीव-मात्र को अपने समान मानना है। इस सिद्धांत ने जैन परम्परा में अहिंसा को इतनी प्रधानता दे दी कि अहिंसा और जैनाचार पर्यायवाची से हो गए। अहिंसा के संदर्भ में जैनागम जितनी सूक्ष्मता में गए, शायद ही कोई दूसरा साहित्य उतनी सूक्ष्मता में गया हो । ज्ञान की निष्पत्ति यही मानी गई कि किसी की भी हिंसा न की जाए -
एवं खुणाणिणो सारं जंण हिंसइ कंचणं।
अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया। हिंसा की जड़ में प्राय: परिग्रह का भाव रहता है। सुख-सुविधा की इच्छा से प्रेरित होकर संग्रह करने की प्रवृत्ति परिग्रह है। यह प्रवृत्ति जितनी बलवती होती है मनुष्य उतना ही उचितानुचित का विवेक खो देता है और यह विवेकहीनता ही आचारहीनता का मूल कारण है। परिग्रह से मुक्ति का अर्थ है - आत्मविश्वास जनित स्वावलम्बन का भाव । मुनि जीवन अपरिग्रह की ही चरम परिणति है जहां साधक देह के प्रति भी आसक्ति से मुक्त हो जाता है। जैन आचार मीमांसा के अधिकांश प्रावधान इस देहासक्ति से मुक्ति की भावना से ही प्रेरित है।
यदि जैन आगमों में वर्णित धुत की चर्या अथवा जिनकल्पी की चर्या अथवा प्रतिमाधारी की चर्या को देखें तो उसमें अहिंसा तथा अपरिग्रह की युक्ति का ही चरमोत्कर्ष दिखाई देगा। विचारों के प्रति अनासक्ति यदि अनेकान्त है तोपदार्थों के प्रति अनासक्ति अपरिग्रह है। आसक्ति न हो तो हिंसा का कारण ही समाप्त हो जाता है।
सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति भी एक बन्धन ही है। जैनागमों ने मुक्ति के द्वार को जैन जैनेतर सबके लिए खोलकर साम्प्रदायिक अभिनिवेश से भी मुक्ति का समर्थन किया। केवल जैन परम्परा का साधु ही नहीं, अन्य परम्परा का साधु भी तथा गृहस्थ भी मुक्ति का अधिकारी होता है, शर्त केवल वीतरागता की है।
आज विश्वशांति का अथवा आतंकवाद के विरोध का जो स्वर उठ रहा है, वह विशेष प्रभावशाली नहीं हो पा रहा है क्योंकि हम हिंसा की जड़-विलासप्रियता पर प्रहार करने में हिचकिचाते हैं। असीम संग्रह की इच्छा और अस्वस्थ स्पर्धा व्यक्ति को व्यक्ति से ही नहीं, राष्ट्र को राष्ट्र से टकरा देती है। प्राकृतिक साधनों का अनियंत्रित उपभोग पर्यावरण के लिए भारी संकट उत्पन्न कर रहा है। ऐसे में जैनागमों का इच्छा परिमाण तथा अनासक्ति का संदेश मानव जाति को संकट से बचाने का एकमात्र अमोघ उपाय दिखाई दे रहा है।
जैनागमों का अधिकांश भाग आचार-मीमांसा परक ही है। हमने अपने शोध-प्रबन्ध
1. * Deo. S.B., History of Jain Monachism, Poona, 1956 * Sogani, K.C. Ethical Doctrines in Jainism, Solapur, 1967 * Bhargva. D.V.. Jaina Ethics, Delhi. 1968 * Jaini, P.S., The Path of Purification, Delhi, 1990
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