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जैन आगम में दर्शन
में उसका कुछ अंश ही स्थालीपुलाक न्याय से विवेचित किया है। विस्तार के लिए हमारे पूर्ववर्ती वे विवेचन देखे जा सकते हैं जो केन्द्र में जैनाचार को ही लेकर चलते हैं।'
जहां तक प्रस्तुत अध्याय का सम्बन्ध है, हमने इसमें जैनागमों के प्रमाण से आचार के लक्षण, स्वरूप, मानदण्ड तथा आधार भेद आदि पर ऊहापोह पूर्वक विचार करते हुए जैन रत्नत्रय की बौद्ध अष्टांग मार्ग से तुलना की है। आचार का पालन सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता है। वस्तुत: आगम दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तप-आचार, वीर्याचार का भी विवेचन चारित्राचार के ही समान करते हैं। यह आचार का व्यापक स्वरूप है। हमने इसी व्यापक अर्थ में आचार. मीमांसा की है। धर्म के लक्षण में अहिंसा और संयम के साथ तप को भी अलग से परिगणित करना तप के महत्त्व को प्रकट करता है - धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। अत: तप का वर्णन आचार के अन्तर्गत सहज ही आ गया है।
प्रवृत्ति का वलय तो अन्तिम स्थिति में ही टूटता है। तब तक क्रिया रहती है। आचार के संदर्भ में क्रिया की अवधारणा महत्त्वपूर्ण है, अत: क्रिया पर हमने पृथक् से प्रकाश डाला है। यह चर्चा आगमोत्तर काल में प्राय: छूट गई लगती है। आगम के आधार पर की गई यह चर्चा शायद दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो।
जैनागमों की आचार-मीमांसा में अहिंसा और अपरिग्रह की विशेष चर्चा आना स्वाभाविक है। यद्यपि सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य का भी समावेश पांच व्रतों में है तथापि जैन आचार-मीमांसा के व्यावर्तक धर्म तो अहिंसा और अपरिग्रह ही हैं। उनका शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करते समय हमने उनकी प्रासंगिकता की ओर भी इंगित किया है।
परवर्ती साहित्य में आचार-मीमांसा का क्रमबद्ध वर्णन श्रावकाचार तथा मुनिधर्म के अन्तर्गत है किंतु फिर भी आगमों की आचार-मीमांसा का अपना वैशिष्ट्य है। आगमकालिक आचार-मीमांसा को देखने पर जैन आचार-मीमांसा का विकास क्रम ख्याल में आ जाता है। उदाहरणत: आचारांग में पांच व्रतों का एक साथ उल्लेख नहीं है किन्तु चार कषायों का उल्लेख है। जब कषाय-मुक्ति का व्यावहारिक रूप प्रकट हुआ तो पांच व्रत फलित हुए। उन व्रतों के अतिचारों के वर्णन ने व्रतों को और भी अधिक व्यावहारिक रूप दे दिया। जैन आगमों में जैनेतर दर्शन
मध्ययुग के आचार्य स्वमत के समर्थन में पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष की प्रणाली अपनाते रहे जिसमें परमत को पूर्वपक्ष के रूप में रखकर उसका खण्डन किया जाता था। यह परम्परा जैन, बौद्ध तथा वैदिक सभी दार्शनिकों ने अपनाई। किंतु प्राचीनकाल के आर्ष साहित्यउपनिषद्, जैनागम तथा पालि त्रिपिटक तक अपने मत का प्रतिपादन ही मुख्य रहा, परमत
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