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________________ विषय-प्रवेश 15 केखण्डन पर विशेष बल नहीं दिया गया, फिर भी परमत का उल्लेख इस प्राचीन आर्ष साहित्य में भी है जिसका अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। जैनागमों में जैनेतर 3 6 3 मतों का उल्लेख है। जहां तक 3 6 3 की संख्या का सम्बन्ध है, यह संख्या अनेक मतों को बतलाने के लिए प्रतीक के रूप में भी प्रयुक्त की गई हो सकती है। परवर्ती जैन आचार्यों ने इस संख्या को गणितीय आधार पर भी सिद्ध किया है। इतना तो स्पष्ट है कि भारत में आज भी अनेकानेक सम्प्रदाय प्रचलित हैं जिनकी संख्या सैकड़ों में ही है। भगवान् महावीर का काल दार्शनिक उथल-पुथल का समय था । पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी जा रही थी। ऐसे में अनेकानेक विचारक अपनी-अपनी बात कह रहे थे। अजितकेश कम्बली, पूरणकाश्यप, मक्खलिगोशाल, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त आदि अनेक ऐसे विचारकों का उल्लेख बौद्ध परम्परा में भी है। इतनी बात इन सभी विचारकों की समान थी कि ये स्वयं मौलिक होने का दावा कर रहे थे, ये किसी प्राचीन परम्परा के अनुयायी नहीं थे। इस रूप में ये स्वयं ही किसी न किसी मत के संस्थापक बन रहे थे। इनमें से जैन और बौद्ध परम्परा तो चिरजीवी बनी और आजीवक मत की परम्परा भी पर्याप्त समय तक चली। शेष परम्पराएं . अल्पजीवी ही सिद्ध हुईं। जैन परम्परा इस वाद-विवाद में अपने को मध्यस्थ रखने का प्रयत्न करती रही। अपने मत की प्रशंसा तथा दूसरों के मत की निन्दा उसे अभिप्रेत नहीं थी - सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ वस्तुत: अनेकान्तवाद में किसी मत का एकान्तत: खण्डन उचित भी नहीं है। सभी मतों में आंशिक सत्य तो रहता ही है - परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो॥ इस दृष्टि से जैनागमों में जो जैनेतर मान्यताओं का उल्लेख है उसे परिशिष्ट रूप में हमने छठे अध्याय में दे दिया है। इन मतों की मान्यताओं का अधिक विस्तार जैनागमों में नहीं मिलता। तात्कालिक बौद्ध आदि साहित्य के अनुशीलन से इन मतों पर कुछ अधिक प्रकाश पड़ने की संभावना है। किन्तु जितना विवरण हमने यहां दिया है, वह यह सिद्ध करने के लिए तो पर्याप्त है कि जैनागमों का काल गहन दार्शनिक ऊहापोह का काल था और अनेक मतवादों के बीच में से जैन परम्परा निकली तो उसका रूप निश्चित ही निखरा। अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण इन अनेकानेक मतों का जैन दृष्टि से समन्वय भी हुआ। संभव है पंचसमवाय की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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