SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 69 साहित्य मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त है-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका । इन चारों के साथ मूल आगमों को जोड़ देने से जैन आगम साहित्य पंचांगी नाम से अभिहित होता है। प्रस्तुत प्रकरण में हम नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे। नियुक्ति जैन आगमों की प्राचीनतमव्याख्या नियुक्ति को माना जाता है। आगम साहित्य की प्राकृत भाषा में निबद्ध पद्यात्मक व्याख्या ग्रन्थ नियुक्ति है। सूत्र में निश्चित किया हुआ अर्थ जिसमें निबद्ध हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है।' नियुक्ति स्वतंत्र शास्त्र नहीं है, किंतु वह अपने सूत्र के अधीन है। नियुक्ति आगमों पर आर्या छन्द में प्राकृत गाथाओं में लिखा हुआ संक्षिप्त विवेचन है। उपलब्ध नियुक्तियों का अधिकांश भाग भद्रबाहु द्वितीय की रचना है। उनका समय विक्रम की पांचवीं याछठी शताब्दीमाना जाता है। आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, सूर्यप्रज्ञप्सि और ऋषिभाषित इन दस ग्रन्थों पर नियुक्तियां लिखी गई हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियां अनुपलब्ध हैं। पिण्डनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति का भी उल्लेख प्राप्त है तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इनका परिगणन मूलसूत्र के रूप में करता है। नियुक्तियां संक्षिप्त हैं फिर भी उनमें दार्शनिक एवं तात्त्विक चर्चा बहुत ही सुन्दर ढंग से हुई। अनेक ऐतिहासिक, पौराणिक तथ्य भी नियुक्तियों में उपलब्ध है। संक्षिप्स और पद्यबद्ध होने के कारण नियुक्तियों को आसानी से कंठस्थ किया जा सकता था और धर्मोपदेश के समय इसमें से कथा आदि के उद्धरण दिए जा सकते थे, इसलिए इनकी उपयोगिता स्वत: सिद्ध थी। भाष्य नियुक्ति साहित्य की तरह ही भाष्य साहित्य भी प्राकृत भाषा में संक्षिप्त शैली में गाथाओं में निबद्ध है। भाष्यकारों में प्रसिद्ध संघदासगणी और जिनभद्रगणी हैं। भाष्य-साहित्य में निशीथ-भाष्य, व्यवहार-भाष्य, बृहत्कल्प-भाष्य, विशेषावश्यक-भाष्य आदि भाष्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाष्य साहित्य में जैन चिंतन का प्रस्फुटन प्रखरता से हुआ है। आगमों के गहन गम्भीर तथ्यों का युक्तिपुरस्सर कथन भाष्य साहित्य में दृष्टिगोचर होता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण विरचित विशेषावश्यक भाष्य में दार्शनिक चिंतन का विवेचन बहुत यौक्तिक ढंग से हुआ। दर्शन के प्राय: सभी पहलुओं पर जिनभद्रगणी ने ध्यान आकृष्ट किया है। बृहत्कल्पभाष्य में संघदासगणी ने साधुओं के आहार, विहार आदि नियमों की विचारणा दार्शनिक तरीके से की है। लघु, मध्य एवं बृहत् तीनों ही आकार के भाष्य लिखे गए हैं। नियुक्ति 1. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 8 8 : णिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होई णिज्जुत्ती। 2. पिण्डनियुक्ति वृत्ति पत्र 1 : निर्युक्तयोन स्वतन्त्रशास्त्ररूपा: किन्तु तत्तत्सूत्रपरतन्त्राः । 3. मालवणिया, दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 33 4. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 84-85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy