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जैन आगम में दर्शन
पूर्वोत्तर भाव स्पष्ट है। भगवती के बाद की भाषा के स्थिर रूप ज्ञाताधर्मकथा आदि में देखने को आते हैं।
बौद्धों के हीनयान सम्प्रदाय द्वारा स्वीकृत त्रिपिटकों की पाली तथा जैन आगमों की अर्धमागधी का उत्तरकालीन वैयाकरणों नेमागधी भाषा के रूप में उल्लेख किया है। वैयाकरणों ने अर्धमागधी के जिन लक्षणों का प्रतिपादन किया है उन लक्षणों की उपलब्धि वर्तमान में प्राप्त जैन आगमों में कहीं-कहीं ही है। सारे लक्षण इसमें घटित ही नहीं हो रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण में स्पष्ट कहा है कि उनके व्याकरण के सब नियम आर्ष भाषा में लागू नहीं होते क्योंकि उसमें बहुत से अपवाद हैं। जैनों ने अर्धमागधी को अथवा वैयाकरणों ने आर्ष भाषा को मूल भाषा स्वीकार किया है जिससे अन्य भाषाओं और बोलियों का उद्गम हुआ। जैन परम्परा के अनुसार अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, पशु, पक्षी सबकी भाषा में परिणत हो जाती है।
वर्तमान में उपलब्ध जैन आगमों की भाषा भगवान् महावीर के निर्वाण के 1000 वर्ष बाद की है। दीर्घकाल के इस व्यवधान में समय-समय पर जो आगमवाचनाएं हुई उनमें आगम ग्रंथों की भाषा में निश्चय ही काफी परिवर्तन हो गया होगा। आगम के टीकाकारों का ध्यान इस
ओर गया भी है। "उनके ग्रंथों में विविध पाठांतरों का प्रास होना भाषा के परिवर्तित होने का प्रमाण है। टीकाकारों को सूत्रार्थ स्पष्ट करने के लिए आगमों की मूल भाषा में काफी परिवर्तन और संशोधन करना पड़ा है। उदाहरण के लिए, कल्पसूत्र की प्राचीन प्रतियों में कहीं पर 'य' श्रुति मिलती है तो कहीं नहीं भी मिलती है। कहीं 'य' श्रुति के स्थान पर 'इ' का प्रयोग देखने में आता है। कहीं ह्रस्व स्वर का प्रयोग और कहीं पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ स्वर का प्रयोग देखा जाता है। जैन आगमों की भाषा के सम्बन्ध में हम इतना कह सकते हैं कि उनकी मूल भाषा अर्धमागधी थी किंतु काल के प्रलम्ब प्रवाह में उसमें अत्यधिक परिवर्तन आया है जिससे उसके मूल स्वरूप को प्रकट करना दुरूह हो गया है। आगमों का व्याख्या साहित्य
भगवान् महावीर की वाणी के रूप में विश्रुत जैन-आगम साहित्य का जैन-धर्म-दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी महत्ता का अवबोध उस पर लिखे गए विपुल साहित्य के अवलोकन से होता है। आगम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, अवचूरी, विवरणिका, दीपिका, टब्बा आदि विपुल मात्रा में व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है। आगमों का व्याख्यात्मक
1. नंदिसुत्तं, अणुओगद्दाराइं (संपा. मुनि पुण्यविजय, बम्बई, 196 8) प्रस्तावना पृ. 13, 14 2. प्राकृतव्याकरण, 8/1/3 : आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । 3. समवाओ, 34/23 : सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय
चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरी-सिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहदाभासत्ताए परिणमइ। 4. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृतसाहित्य का इतिहास, (वाराणसी, 1985) पृ. 53
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