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________________ 70 एवं भाष्य की भाषा, उनमें पद्यात्मकता आदि समानता होने से कुछ भाष्य और नियुक्तियों का इतना मिश्रण हो गया है कि उनका पृथक्करण अशक्य जैसा हो गया है । चूर्णि जैन आगम में दर्शन आगमों के व्याख्या साहित्य में चूर्णि साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । चूर्णियां गद्य में लिखी गई हैं। इनकी भाषा संस्कृत - मिश्रित प्राकृत है, अत: इस साहित्य का क्षेत्र नियुक्ति एवं भाष्य की अपेक्षा अधिक व्यापक था । लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी की चूर्णियां उपलब्ध होती हैं। चूर्णिकारों में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध है । चूर्णियों में मुख्यतः भाष्य के ही विषय को संक्षेप में गद्य रूप में लिखा गया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, जीतकल्प, जीवाभिगम, प्रज्ञापनाशरीरपद, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार पर चूर्णियां उपलब्ध हैं। चूर्णियों में लौकिक, धार्मिक अनेक कथाएं दी हैं, प्राकृत भाषा में शब्दों की व्युत्पत्ति दी है तथा संस्कृत और प्राकृत के अनेक पद्य इनमें उद्धृत हैं। चूर्णि साहित्य का अध्ययन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हो सकता है। टीका आगमों का व्याख्या साहित्य प्राकृत, संस्कृत एवं क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध है। नियुक्ति एवं भाष्य प्राकृत भाषा में लिखे गए। प्रारम्भ से ही जैन चिंतकों का यह लक्ष्य रहा कि उनका साहित्य जन सामान्य के लिए भी सहज ग्राह्य रहे। इसके लिए उन्होंने तत्काल प्रचलित भाषा का अवलम्बन अपने साहित्य निर्माण में लिया। चूर्णि साहित्य में भाषा के परिवर्तन की भूमिका बन जाती है । उसमें प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रण हो जाता है। कालप्रवाह में जैन साहित्यकारों का आकर्षण संस्कृत भाषा की तरफ हुआ और जैन आगमों पर संस्कृत व्याख्या लिखी जाने लगी। जिनको टीका कहा जाता है। जैन आगमों की उपलब्ध प्राचीन संस्कृत टीकाओं के कर्ता आचार्य हरिभद्र हैं। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, नंदी, अनुयोगद्वार आदि पर टीकाएं लिखी हैं। इन टीकाओं में लेखक चूर्णयों के प्राय: कथा भाग को प्राकृत भाषा में ही उद्धृत किया है। इन्होंने जैन तत्त्व ज्ञान का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करने में अपने दार्शनिक ज्ञान का भरपूर उपयोग किया है। इनका समय ईस्वी सन् 705-775' माना जाता है। हरिभद्र के पश्चात् शीलांकसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत में महत्त्वपूर्ण टीकाओं की रचना की। शीलांक के उत्तरवर्ती शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययन पर बृहद्वृत्ति लिखी। इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेवसूरि ने नौ अंगों पर टीकाओं की रचना करके जैन आगम साहित्य की महत्त्वपूर्ण सेवा की। ये नवांगी टीकाकार कहलाए। मल्लधारी हेमचन्द्र का नाम भीटीकाओं की रचना में उल्लेखनीय है । आगमों की संस्कृत में टीका करने वालों में सर्वश्रेष्ठ स्थान आचार्य मलयगिरि को प्राप्त है। प्रांजल भाषा में दार्शनिक चर्चा से युक्त गम्भीर तत्त्वों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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