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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 71 विवेचन उनकी टीका में प्राप्त है। जैन आगमों के कर्म, आचार, ज्ञान आदि प्राय: सभी विषयों पर उन्होंने विशदता से लिखा है। जैन आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। जैन-तत्त्व-मीमांसा के अतिरिक्त सम-सामयिक परिस्थितियों का आकलन भी उस साहित्य के माध्यम से किया जा सकता है। दिगम्बर आम्नाय मान्य आगम दिगम्बर परम्परा के अनुसार आगम के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य के सामायिक, चतुर्विंशति आदि चौदह भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के आचार, सूत्रकृत आदि वे ही बारह भेद हैं जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं, केवल ज्ञाताधर्मकथा नाम के स्थान पर नाथधर्मकथा नाम का उल्लेख है। दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र आदि पांच अधिकार हैं। परिकर्म के पांच भेद बतलाए गए हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति । सूत्र अधिकार में जीव तथा त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषार्थवाद का वर्णन है। प्रथमानुयोग में पुराणों का उपदेश है। पूर्वगत अधिकार में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का कथन है, इनकी संख्या चौदह है। जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता-ये पांच चूलिका के भेद हैं।' श्वेताम्बर परम्परा में मान्य परिकर्म, सूत्र आदि के भेदों, नामों एवं विषय-वस्तु की दृष्टि से इनकी पर्याप्त भिन्नता है। समवायांग में सिद्धश्रेणिका, मनुष्यश्रेणिका आदि सात प्रकार का परिकर्म माना है।' ऋजुक, परिणतापरिणति आदि के भेद से सूत्र को अट्ठासी प्रकार का माना है। दिगम्बर जिसको प्रथमानुयोग कहते हैं श्वेताम्बर परम्परा में उसका नाम अनुयोग हैं। मूलप्रथमानुयोग एवं कंडिकानुयोग ये दो उस अनुयोग के भेद हैं। पूर्वगत में चौदह पूर्वो का उल्लेख दोनोंपरम्पराओं में है। श्वेताम्बर परम्परामें ग्यारहवेंपूर्वका नाम 'अवंझ' है, दिगम्बर परम्परा में उसका ‘कल्याणवाद' नाम है। श्वेताम्बर परम्परा में चूलिका के संदर्भ में उल्लेख आता है कि प्रथम चार पूर्यों में चूलिकाएं हैं, शेष पूर्वो में चूलिकाएं नहीं हैं। चूलिकाओं का पूर्वो में समावेश हो जाता है जबकि दिगम्बरों के अनुसार चूलिका का पूर्वो से कोई सम्बन्ध नहीं है। दिगम्बर मान्य परिकर्म के प्रथम तीन भेद श्वेताम्बर मान्य उपांगों के अन्तर्गत है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का भी नंदी में आवश्यकव्यतिरिक्त के कालिकश्रुत के भेद के अन्तर्गत उल्लेख हुआ है।' दिगम्बर परम्परा में पांचवें अंग का नाम भी व्याख्याप्रज्ञप्ति है और परिकर्म के पांचवें भेद 1. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20/22 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ 101 3. वही, 110 4. वही, 127 5. वही, 123 6. वही, 130 7. नंदी, सूत्र 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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