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जैन आगम में दर्शन
का नाम भी व्याख्याप्रज्ञप्ति है। श्वेताम्बर परम्परा में पांचवां अंग तो व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम से विश्रुत है किंतु इसके अतिरिक्त अन्य इस नाम वाले ग्रन्थ का श्वेताम्बरीय आगम साहित्य में उल्लेख नहीं है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार बारहवें अंग दृष्टिवाद के कुछ अंशों को छोड़कर अवशिष्ट सारे ही अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगमों का उच्छेद हो गया है। दृष्टिवाद के कुछ अंशषट्खंडागम एवं कषायप्राभृत के रूप में सुरक्षित हैं।
दिगम्बर परम्परा ने मूल आगमों का उच्छेद मानकर भी कुछ ग्रन्थों को आगम जितना ही महत्त्व दिया है और उन्हें जैन वेद की संज्ञा देकर चार अनुयोगों में विभक्त किया है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
1. प्रथमानुयोग-पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण । 2. करणानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जयधवला। 3. द्रव्यानुयोग-प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थाधि
गमसूत्र, आप्तमीमांसा आदि। 4. चरणानुयोग- मूलाचार, त्रिवर्णाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार।'
दिगम्बर परम्परा में षड्खण्डागम एवं कषायप्राभृत ये दो ग्रन्थ आगम रूप में मान्य हैं। षड्खण्डागम में तो आगमशब्द भी प्रयुक्त है। ये दोनोंग्रन्थ दृष्टिवाद के अंशभूत हैं, ऐसी दिगम्बर मान्यता है। इन ग्रन्थों का संक्षेप में यहां वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा हैषट्खण्डागम
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुतज्ञान का क्रमश: ह्रास होते होते भगवान् के निर्वाण के 6 8 3 वर्ष बाद कोई भी अंगधर एवं पूर्वधर आचार्य नहीं रहे, यह दिगम्बर परम्परा की मान्यता है। आगम-विच्छेद क्रम के अन्त में सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंगों एवं पूर्वो के एकदेश के धारक थे। इसी क्रम में सभी अंगों एवं पूर्वो का एक देश आचार्य-परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।' सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में स्थित अष्टांग महानिमित्त के पारगामी आचार्य धरसेन ने सोचा मेरे बाद श्रुत का सर्वथा लोप ही न हो जाए अत: दक्षिणापथ के आचार्यों को पत्र लिखा। वहां से भूतबलिएवंपुष्पदंतयेदोसाधु अध्ययन के लिए आए आचार्य ने उनको श्रुत का अध्ययन करवाया। इन्हीं दो मुनियों ने उस श्रुत के आधार पर षट्खण्डागम की रचना की।'
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1. Winternitz, Manrice, History of Indian Literature, P.455 2. षट्खंडागम (जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, खण्ड-1, पुस्तक-I, भाग-1) पृ. 6 7-6 8 तदो सुभद्दो जसभद्दोजसबाहु ___ लोहज्जो त्ति एदे चत्तारि वि आइरिया आयारंगधरा सेसंग-पुव्वाणमेग-देसधरा य । तदो सव्येसिमंग-पुव्वाणमेग
देसो आइरिय-परम्पराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। 3. वही, पृष्ठ 72 : तदो एयं खंड-सिद्धंतं पड़च्च भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चंति।
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