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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 73 - पुष्पदंत एवं भूतबलि ने जिस ग्रन्थ का निर्माण किया, उन्होंने उसका क्या नाम रखा, यह उनके द्वारा रचित सूत्रों से ज्ञात नहीं होता किंतु धवलाकार ने उसको षट्-खण्ड-सिद्धांत के रूप में वर्णित किया है तथा उन्होंने सिद्धान्त और आगम को पर्यायवाची भी माना है।' गोम्मटसार के कर्ता ने इसे परमागम एवं श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दि ने इसे षट्खण्डागम कहा है। यह ग्रन्थ वर्तमान में 'षट्खण्डागम' नाम से ही प्रसिद्ध है। पुष्पदन्त और भूतबलिनेषट्खण्डागम कीरचना की । पुष्पदंतने 177सूत्रों में सत्प्ररूपणा और भूतबलि ने 6000 सूत्रों में शेष ग्रन्थ लिखा । दूसरे अग्रायणी पूर्व के महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ पाहुड अधिकार के आधार पर षट्खण्डागम के बहुभाग का उद्धार किया गया।' षट्खण्डागम के छह खण्ड हैं जैसा कि इसके नाम से ही विदित है। पहले खण्ड का नाम जीवट्ठाण है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार और प्रकृति-समुत्कीर्तना, स्थान-समुत्कीर्तना आदि नौ चूलिकाएं हैं। इनमें गुणस्थान और मार्गणाओं का वर्णन है। इस खण्ड का परिमाण धवलाकार ने अठारह हजार पद कहा है। दूसरे खण्ड का नाम खुद्दाबंध (क्षुल्लकबंध) है। इसमें स्वामित्व, काल, अन्तर आदि ग्यारह अर्थाधिकार है। इस खण्ड में कर्मबन्ध करने वाले जीव का कर्मबन्ध के भेदों सहित ग्यारह प्ररूपणाओं के द्वारा विवेचन किया गया है। तीसरे खण्ड का नाम बंधस्वामित्व विचय है। कर्म की प्रकृतियों का किसके बंध होता है? कितने गुणस्थान तक होता है? इत्यादि कर्म-सम्बन्धी विमर्श इसमें किया गया है। चौथे खण्ड का नाम वेदना है। इस खण्ड में कृति और वेदना ये दो अनुयोगद्वार हैं। इसमें वेदना के कथन की प्रधानता एवं उसका अधिक विस्तार से वर्णन होने के कारण इस खण्ड का नाम 'वेदना-खण्ड' ही रखा गया है। पांचवां खण्ड वर्गणा नाम से अभिहित है। इस खण्ड का प्रधान वर्णनीय विषय बंधनीय है, जिसमें तेईस प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन और कर्मबन्ध के योग्य वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन है। छठे खण्ड का नाम महाबन्ध है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश बन्ध का विस्तार से वर्णन है। भूतबलि ने पांच खण्डों के पुष्पदंत विरचित सूत्रों सहित छह हजार सूत्र 1. कसायपाहुड, पृ. 75 : इदं पुण खंड-सिद्धंतं पडुच्च पुव्वाणुपुवीए ट्ठिदं छण्हं खंडाणं। 2. वही, पृ. 21 : आगमो सिद्धंतोपवयणमिदिएयट्ठो। 3. वही,जीवस्थान सत्प्ररूपणा । प्रस्तावना, पृ.56 4. वही, जीवस्थान सत्प्ररूपणा 1, पृ. 72 : महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स वोच्छेदो होहिदि त्ति समुप्पण-बुद्धिणा पुणो दव्व- पमाणाणुगममादिकाउण गंथरचणा कदा। 5. वही, जीवस्थान सत्प्ररूपणा I, पृ. 61 : पदं पडुच्च अट्ठारह-पदसहस्सं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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