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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
बना उसे उठाने वाले पुरुष गांव में लौट आते हैं।' इन्हीं शब्दों का प्रयोग दीघनिकाय में हुआ है ।' सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के 1 / 11 श्लोक में 'जे बाला, जे य पंडिया' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। दीघनिकाय (पृ. 48 ) में भी अजितकेशकम्बल के सिद्धान्त विवेचन के मध्य ‘बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति' का उल्लेख हुआ है। उभयत्र बाल एवं पण्डित शब्द प्रयुक्त है । इन तथ्यों के आधार पर इस सिद्धान्त को 'तज्जीवतच्छरीरवाद' कहा जा सकता है यद्यपि यह सुस्पष्ट नहीं है कि पंचमहाभूतवादी और 'तज्जीवतच्छरीरवादी' की अवधारणा में मौलिक अन्तर क्या है ? दोनों का सिद्धान्त एक जैसा ही प्रतीत होता है किंतु सूत्रकृतांग में पृथक् रूप से दोनों का उल्लेख हुआ है अत: इनके सिद्धान्त में मुख्यत: क्या भेद है, यह अन्वेषणीय है ।
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पंचमहाभूतवाद का मत अन्य मत के रूप में सूत्रकृतांग में विवेचित हुआ है इससे स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन के अनुसार इन पंचभूतों से भिन्न स्वतंत्र आत्मा नाम का तत्त्व है। तज्नीवतच्छरीरवाद
सूत्रकृतांग में यह सिद्धान्त 'एकात्मवाद' के पश्चात् उल्लिखित है । 'पंचमहाभूत' सिद्धान्त के सदृश होने के कारण हम इसका उल्लेख 'एकात्मवाद' से पहले कर रहे हैं। इस मान्यता के अनुसार प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् अखण्ड आत्मा है। इसलिए कुछ अज्ञानी हैं और कुछ पंडित हैं। शरीर ही आत्मा है। वे न परलोक में जाती है, न उनका पुनर्जन्म होता है। पुण्य और पाप नहीं है। इस लोक से अन्य कोई लोक नहीं है। शरीर नाश के साथ ही देही का विनाश हो जाता है ।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इसको 'तज्जीवतच्छरीरवादी' का मत कहा है । वृत्तिकार ने इनको स्वभाववादी भी कहा है । '
वृत्तिकार ने इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा है कि जैसे जलबुबुद् जल से भिन्न कुछ नहीं है वैसे ही भूतों के अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई अन्य तत्त्व नहीं है।' इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने कहा है कि जिस प्रकार घूमता हुआ आलात चक्रबुद्धि उत्पन्न कर देता है वैसे ही विशिष्ट प्रकार की क्रिया से युक्त भूतसमुदाय भी जीव का भ्रम उत्पन्न कर देता है ।' अर्थात् जीव जैसी कोई वस्तु पैदा ही नहीं होती मात्र वैसी अवगति भ्रम मात्र ही है इसी प्रसंग मं उन्होंने स्वप्न. मरीचि, गन्धर्वनगर आदि के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। "
अगणिझामिए सरीरे कवोतवण्णाणि अट्ठीणि भवंति । आसंदी पंचमा पुरिसा गा
1. सूयगडो, 2 1 / 15
पच्चागच्छति ।
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2. दीघनिकाय, पृ. 48, आसन्दिपंचमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति । कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति ।
3. सूयगडो, 1 1/11-12
4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14, इति तज्जीवतच्छरीरवादिमतं गतम् ।
5. वही, पृ. 14, . इत्येवं स्वभावाज्जगद्वैचित्र्यं ।
6.
वही, पृ. 14
7. वही, पृ. 14, यथा वाऽलातं भ्राम्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पादयति एवं भूतसमुदायोऽपि विशिष्टक्रियोपेतो जीवभ्रान्तिमुत्पादयति ।
8. वही, पृ. 14
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