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जैन आगम में दर्शन
प्रस्तुत उदाहरणों के आलोक में पंचमहाभूतवाद एवं तज्जीवतच्छरीरवाद की भिन्नता का हेतु अन्वेषणीय है। संभव ऐसा लगता है पंचभूतवादी आत्मा नाम के तत्त्व की वास्तविक उत्पत्ति मानते हैं यद्यपि वह आत्मतत्त्व पंचभूतों से अतिरिक्त अस्तित्व वाला नहीं है जबकि 'तज्जीवतच्छरीरवाद' के अनुसार जीव की कोई उत्पत्ति होती ही नहीं भ्रम के कारण ऐसी प्रतीति होने लगती है। एकात्मवाद
__ एकात्मवादी दर्शन उपनिषदों का उपजीवी है। सर्वत्र ‘एक ही आत्मा है' । एकात्मवाद की इस अवधारणा का प्रतिपादन सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में हुआ है। जैसे एक ही पृथ्वी स्तूप (मृत्-पिण्ड) नाना रूपों में दिखाई देता है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक एक विज्ञ (ज्ञान-पिण्ड) है, वह नाना रूपों में दिखाई देता है।'
वृत्तिकार इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार एक मृत्-पिण्ड सरित, समुद्र, पर्वत, नगर, सन्निवेश आदि का आधारभूत होने से भिन्न-भिन्न दिखाई देता है इसी प्रकार चेतन-अचेतन रूप सम्पूर्ण लोक एकमात्र ज्ञानरूप ही है। इसका यही तात्पर्य है कि ज्ञानवान् एक ही आत्मा पृथ्वी आदि भूतों के रूप में नाना प्रकार की दिखाई दे रही है।
सूत्रकृतांग नियुक्ति में इस वाद को 'एकप्पए' एकात्मवाद कहा है। वृत्तिकार इसे 'आत्माद्वैतवाद' से अभिहित करते हैं। परन्तु वहां पर किसी विशेष दार्शनिक के मत के रूप में इसको प्रस्तुत नहीं किया गयाहै किंतुटीका में आगत उद्धरणउपनिषद् साहित्य से सम्बन्धित है अत: इसे उपनिषद्-दर्शन कहा जासकता है। आचार्य महाप्रज्ञने इस अभिमत को उपनिषद् दर्शन माना है। ऐतरेय उपनिषद् का कहना है कि पहले यह जगत् एकमात्र आत्मा ही था। इस मत को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “सत् एक था।" यह सिद्धान्त ऋग्वेद (1/164/ 46) में प्राप्त होता है। किंतु वह सत् आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। एकात्मवाद का सिद्धान्त उपनिषदों में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद्' में बताया है कि एक मृत्-पिंड के जान लेने पर सब मृण्मय विज्ञात हो जाता है। घट आदि उसके विकार हैं। मृत्तिका ही सत्य है।'
। सूयगडो, 1/1/9
सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र 13
सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 29 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 1 3...........इत्यात्माद्वैतवाद: । 5. वही, पृ13 6. एतेरेयोपनिषद् (गोरखपुर, वि.सं. 2025)1/1/1 आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् 1. छान्दोग्य उपनिषद्, 6/1/4, यथा सौम्यैकेन मृपिण्डेन सर्वं मुन्मयं विज्ञातं भवति ।
वाचारम्भणं विकारो नामधेयं, मत्तिकेत्येव सत्यम् ।। 8. सूयगडो, 1/1/9-10 का टिप्पण
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