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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
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जैन दर्शन के अनुसार एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है। कोई भी एक आत्मा इस दृश्य जगत्का उपादान कारण नहीं है। आत्माएं अनन्त हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है।'
स्थानांग में ‘एगे आया यह वक्तव्य प्राप्त है किंतु उसका अभिप्राय उपनिषद् मान्य एकात्मवाद को अभिव्यक्त करना नहीं है। वहां पर संग्रह नय की दृष्टि से यह वक्तव्य दिया गया है।
अकारकवाद
__ आत्मा न कुछ करती है, न दूसरे से कुछ करवाती है। सबके साथ करने कराने की दृष्टि से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा अकारक है। कुछ लोग ऐसे सिद्धान्त स्थापित करने की धृष्टता करते हैं। वृत्तिकार ने इस मत को सांख्य का बताया है। वृत्तिकार ने आत्मा में कर्तृत्व क्यों नहीं है ? इसके लिए आत्मा की अमूर्तता, नित्यता एवं सर्वव्यापकता को हेतु माना है। सांख्य के अनुसार आत्म अमूर्त, नित्य एवं सर्वव्यापक है। उसमें कर्तृत्व नहीं है।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा शरीर-व्यापी है, सर्वव्यापी नहीं है। अमूर्तता एवं नित्यता कर्तृत्व के विरोधी नहीं है। जैन के अनुसार आत्मा परिणामी नित्य है वह निष्क्रिय नहीं है। आत्मष्ठवाद
कुछ महाभूतवादी दार्शनिक पांच महाभूत तथा आत्मा को छठा तत्त्व मानते हैं। उनके मतानुसार आत्मा और लोक शाश्वत है। आत्मा और लोक का विनाश नहीं होता। असत् उत्पन्न नहीं होता सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव को प्राप्त हैं, शाश्वत हैं। सूत्रकृतांग नियुक्ति में इस वाद को “आत्मषष्ठ' कहा गया है। वृत्तिकार ने वेदवादी सांख्य तथा शैवाधिकारियों के मत के रूप में इस वाद को प्रस्तुत किया है।'
हर्मन जेकोबी के अनुसार आत्मषष्ठवाद की अवधारणा उससमय (Primitive)अथवा दर्शन की सामान्य अवधारणा थी जिसको आज हम वैशेषिक के नाम से जानते हैं। जेकोबी का
1. सूयगडो, 2/1/51 2. ठाणं, 1/2 3. सूयगडो, 1/1/13 4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 5. वही, पृ. 14, आत्मनश्चामूर्तत्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः। 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 7/1 5 8..........हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। 7. सूयगडो, 1/1/15-16 8. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 29........आतच्छट्ठो..........। 9. सूत्रकृतांग वृनि, पृ. 16..........वेदवादिनां सांख्यानां शैवाधिकारिणां च एतद् आख्यातम्।
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