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________________ 186 जैन आगम में दर्शन को समाहित करने का प्रयत्न किया। इस संदर्भ में एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि जीव का पुद्गल के साथ कथंचित् सादृश्य है क्या वैसा ही सादृश्य पुद्गल का भी जीव के साथ है? जैनदर्शन इसका उत्तर हां में देता है। भगवती में ही शरीर और आत्मा के परम्पर भेदाभेद का प्रश्न उपस्थित किया गया है। काय (शरीर) आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है ? यह रूपी है अथवा अरूपी है ? यह सचित्त है अथवा अचित्त है? इन प्रश्नों को समाहित करते हुए कहा गया है कि शरीर आत्मा भी है और उससे भिन्न भी है। वह रूपी भी है और अरूपी भी है, सचित्त भी है और अचित्त भी है।' शरीर की आत्मा से अभेदता, अरूपता एवं सचित्तता शरीर की जीव के साथ सदृशता की अभिव्यक्ति दे रही है। जैसे जीव स्वरूपत: अमूर्त होते हुए भी अपेक्षा विशेष से मूर्त हो जाता है, वैसे ही शरीर स्वरूपत: मूर्त, अचित्त होते हुए भी अपेक्षा विशेष से अमूर्त एवं सचित्त भी हो जाता है। आत्मा एवं शरीर का भेदाभेद आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है. यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते। उनमें सर्वथा भेद भी नहीं है । यदि सर्वथा भेद होता तो उनका परस्पर कभी भी सम्बन्ध ही नहीं होता अत: अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है। आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाये तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए। उनको परस्पर अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जायेगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिण्डवत् तादात्म्य है, अतएव काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायकृत कर्म का भोग भी आत्मा करती है अत: शरीर और आत्मा अभिन्न है। शरीर नाश के बाद भी आत्मा रहती है तथा सिद्धावस्था में आत्मा अशरीरी होती है अत: आत्मा एवं शरीर परस्पर भिन्न भी है। जीव के सवर्णता, सगन्धता आदि एवं शरीर के अरूपता, सचित्तता आदि विशेषण जीव और शरीर में परस्पर ऐक्य मानने से ही घटित होते हैं। भगवती में जीव को अरूप, अकर्म, अवर्ण आदि भी कहा है। काय को अचित्त, रूपी आदि कहा है। भगवती का यह वक्तव्य उन दोनों में भिन्नता को सिद्ध कर रहा है। 1. अंगसुत्ताणि 2, (भवगई) 13/12 8, आया वि काये, अण्णे वि काये। रूवि पि काये, अरूवि पि काये। सचित्ते विकाये, अचित्ते विकाये। जीवे वि काये अजीवे वि काये। 2. वही, 17/35, जण्णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स, अकम्मस्स, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पण्णायति, तं जहा-कालते वा जाव सुक्किलिते वा..... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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