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________________ कर्ममीमांसा सरल हो जाती है ।' आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव के स्निग्ध परिणाम का उल्लेख तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति में किया है ।' जीव और पुद्गल का सम्बन्ध शरीर धारण, आहार ग्रहण, कर्मबंध, कर्मविपाक आदि अनेक रूपों में होता है । 185 नद का उदाहरण आगम साहित्य की यह शैलीगत विशेषता रही है कि वे तत्त्व प्रतिपादन में तर्क का अवलम्बन तो नहीं के बराबर लेते हैं किंतु प्रसंगप्राप्त विषय को व्यावहारिक उदाहरण से स्पष्ट करके पाठक की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयत्न करते हैं । जीव और पुद्गल के सम्बन्ध के प्रसंग में भी भगवती में 'नद' का उदाहरण दिया गया है । भगवान् महावीर गौतम की जिज्ञासा का समाधान 'नद' के उदाहरण से प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- “जैसे कोई ग्रह जल से पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाला, छलकता हुआ, हिलोरें लेता हुआ चारों ओर से जल-जलाकार हो रहा है । कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी सैंकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे। गौतम ! वह नौका उन आश्रवद्वारों के द्वारा जल से भरती हुई, पूर्ण परिपूर्ण प्रमाण वाली, छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई चारों ओर से जल जलाकर हो जाती है ? गौतम- हां, हो जाती है । गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्यस्पृष्ट, अन्योन्य अवगाढ, अन्योन्य- स्नेह प्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं । ' भगवती के इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि जीव और कर्म परस्पर एकीभूत बने हुए हैं। जीव और पुद्गल का सादृश्य संसारावस्था में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है अत: उनका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है । संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल- इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त्त जीव मूर्त्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त्त है । भगवती में कर्मयुक्त जीव को मूर्त्त माना है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, दो गंध आदि से युक्त है । ' वह रूपी है। जैन के सामने भी समस्या थी कि विजातीय द्रव्यों का सम्बन्ध कैसे होता है ? उसने जीव का पुद्गल के साथ कथंचिद् सादृश्य स्वीकार करके इस समस्या 1. भगवई (खण्ड-1) पृ. 139 2. पञ्चास्तिकाय, गाथा 128 / 130 तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, पृ. 188 - इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । 3. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/313 4. वही, 17/33 जणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेदस्स, समोहस्स, सलेसस्स, ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविप्पमुस्स एवं पण्णायति, तं जहा कालत्ते वा सुक्किलित्ते वा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्तत्ते वा जाव महुरत्ते वा, कक्खडते वा जाव लुक्खत्ते वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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