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जैन आगम में दर्शन
एवं मोक्ष पुरुष के नहीं होते हैं। प्रकृति ही बंधती है और वही मुक्त होती है।' सांख्य ने विसदृश पदार्थों का सम्बन्ध करवाए बिना ही संसार की व्याख्या की ।
न्यायमत
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नैयायिक-वैशेषिक एवं जैन दर्शन ने जीव और जड़ में परस्पर सम्बन्ध को स्वीकार किया है किंतु इसका समाधान दोनों ने भिन्न प्रकार से दिया है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन ने आत्मा और परमाणु में सम्बन्ध स्वीकार किया है। उनके अनुसार उन दो विसदृश पदार्थों में स्वतः सम्बन्ध नहीं होता किंतु ईश्वर उन दोनों का परस्पर सम्बन्ध करवाता है। अतएव वे निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को जगत का कर्ता मानते हैं। उन्हें दो विजातीय तत्त्वों में सम्बन्ध करवाने के लिए एक विशिष्ट ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति देनी पड़ी।
जैनमत
जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। उसके अनुसार जीव और पुद्गल दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है । ' जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन है । चेतन कभी अचेतन नहीं बनता, अचेतन कभी चेतन नहीं बनता । अस्तित्व की त्रैकालिक स्वतंत्रता होने पर भी उनमें परस्पर सम्बन्ध हो सकता है। यह जैनदर्शन की मान्यता है । भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्ध पर महत्त्वपूर्ण चिंतन हुआ है । वैसा चिंतन कर्म सिद्धान्त के आगम से उत्तरवर्ती ग्रंथों में तो उपलब्ध है ही नहीं किंतु भगवती इतर अन्य आगमों में भी वैसा निरूपण प्राप्त नहीं है ।
गौतम ने जिज्ञासा की - भंते! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्यबद्ध, अन्योन्यस्पृष्ट, अन्योन्य-अवगाढ, अन्योन्य- स्नेह प्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं? भगवान् ने इस जिज्ञासा का समाधान हाँ में दिया । 3
सम्बन्ध : भौतिक या अभौतिक
जीव और पुद्गल का सम्बन्ध भौतिक होता है या अभौतिक यह एक प्रश्न है । संसारी अवस्था में जीव सर्वथा अभौतिक नहीं होता, इसलिए जीव और पुद्गल के सम्बन्ध को भौतिक माना जा सकता है। भगवती सूत्र के अनुसार यह सम्बन्ध केवल जीव या पुद्गल की ओर से ही नहीं होता किंतु दोनों ओर से होता है, इसकी अवगति हमें 'स्नेह प्रतिबद्ध' शब्द से मिलती है। आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है। स्नेह का सम्बन्ध जीव और पुद्गल दोनों से है। उसके आधार पर सम्बन्ध की व्याख्या
1. सांख्यकारिका, श्लोक 62, तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥
2. ठाणं 2 / 1
3. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई) 1 / 312 अत्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्रा, अण्णमण्णपुद्रा, अण्णमण्णमोगाढ़ा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णवडत्ताए चिह्नंति ? हंता अन्थि ।।
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