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________________ कर्ममीमांसा 183 1. चेतन है, जड़ का अस्तित्व ही नहीं है। यह ब्रह्मवाद है। 2. जड़ है, जड़ से भिन्न चेतन का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। यह भूतवाद है। 3. जड़ और चेतन दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं किंतु उनमें परस्पर सम्बन्ध नहीं होता। यह सांख्यमत है। 4. जड़ और चेतन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है तथा उनमें परस्पर सम्बन्ध भी होता है। यह द्वैतवाद है। ब्रह्मवाद ___ प्रथम अवधारणा अद्वैत वेदान्त से जुड़ी हुई है। अद्वैतवाद के सामने दो विसदृश पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध कैसे हुआ? यह समस्या नहीं थी क्योंकि उनके अनुसार जगत एक तत्त्व से ही निर्मित है । यद्यपि ब्रह्म (चेतन) से जड़ अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह समस्या तो उनके सामने भी थी किंतु विसदृश पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध की समस्या उनके सम्मुख नहीं थी। जहां तक वेदान्त का सम्बन्ध है उसने विविधता को सम्बन्धजन्य न मानकर मायाजन्य माना अर्थात् उसके मत में विविधता पारमार्थिक नहीं है अपितु उसकी केवल प्रतीतिमात्र होती है। भूतवाद द्वितीय अवधारणा के स्वीकर्ता चार्वाक हैं। उनके अनुसार जड़ से ही चेतन की उत्पत्ति हो गई है। जड़ भिन्न चेतन पदार्थ का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। इनको भी दो विसदृश पदार्थों में पारस्परिक सम्बन्ध की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। उसके अनुसार जड़ पदार्थ ही एक क्रमविशेष में तथा तारतम्य विशेष में व्यवस्थित होने पर चैतन्य को जन्म दे देते हैं। द्वैतवाद अद्वैतवादी वेदान्त अथवा जड़वादी चार्वाक के सामने दो विजातीय पदार्थों के सम्बन्ध की समस्या नहीं थी। इस समस्या से द्वैतवादियों को ही जूझना पड़ा।ये द्वैतवादी तीन प्रस्थानों में विभक्त हैं--(1) सांख्य, (2) न्याय-वैशेषिक, (3) जैन। सांख्यमत सांख्य प्रकृति और पुरुष - इन दो तत्त्वों को स्वीकार करता है।' दोनों परस्पर विजातीय हैं, एक जड़ है, एक चेतन है। सांख्य के अनुसार पुरुष अपरिणामी है। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव ही नहीं है। परिणमन प्रकृति का स्वभाव है, उसमें परिणमन होता रहता है। पुरुष और प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध ही नहीं होता। सांख्य के अनुसार बंध 1. सांख्यकारिका, श्लोक 3 2. पातञ्जलयोगदर्शनम् 4/33 वृत्ति, तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामी नित्यता गुणानाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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