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जैन आगम में दर्शन
जाते हैं, जबकि यही सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष होकर कार्य की व्याख्या करने में सफल हो जाता है।' जैन कर्मसिद्धान्त में काल, स्वभाव आदि वादों को समन्वित करने का प्रयास किया गया है।
जैन कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में कालवाद का स्थान कर्म के विपाक काल के रूप में है, क्योंकि प्रत्येक कर्म की विपाक की दृष्टि से एक निश्चित कालमर्यादा होती है और अपने विपाक-काल में ही कर्मों में फल प्रदान करने की शक्ति होती है। प्रत्येक कर्म का अपना नियत स्वभाव होता है और उसके अनुसार वे अपना फल देते हैं। किसी कर्म का फल सुखद होता है तो किसी का दु:खद। जैन दर्शन की यह भी मान्यता है कि निकाचित कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यदि किसी कर्म का फल वर्तमान समय में नहीं मिलता है तो उसके लिए भावी जन्मलेना पड़ता है। इस रूप में कर्मसिद्धान्त में व्यक्ति स्वयं ही अपना निर्माता, नियन्ता और स्वामी है तथा दलिक कर्मों को तपस्या द्वारा नष्ट भी किया जा सकता है इसलिए पुरुषार्थ का भी महत्त्व है। जैन दर्शन कर्म को सर्वेसर्वा नहीं मानता। कार्य की निष्पत्ति में उसका भी महत्त्वपूर्ण योग है किंतु अन्य काल आदि समवाय भी कार्य निष्पत्ति में हेतुभूत बनते हैं। जगत के वैविध्य में कर्म प्रधान तत्त्व है। आचारांग एवं भगवती के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है। वहां कर्म को ही विविधता का हेतु कहा गया है। किंतु जैनदर्शन का प्रत्येक वक्तव्य नय सापेक्ष है। प्रस्तुत प्रसंग में भी अनेकान्तिक दृष्टिकोण की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आचारांग एवं भगवती में जीव की विविधता का हेतु कर्म को माना गया है। इसका तात्पर्य यही है कि जगत की विविधता का प्रधान कारण कर्म है अन्य उसके सहयोगी हैं । इस विवेचना से पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती अवधारणाओं में सामंजस्य हो जाता है। जीव एवं कर्म का सम्बन्ध
जीव और जड़ के सम्बन्ध की समस्या भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों की चिन्ता का विषय रही है। सभी दार्शनिकों ने इस समस्या को समाहित करने का प्रयत्न किया है। विश्वव्यवस्था के संदर्भ में दो प्रकार की विचार धाराओं का प्रस्फुटन हुआ-द्वैतवादी और अद्वैतवादी। अद्वैतवादियों ने एक तत्त्व के आधार पर विश्व व्यवस्था की। द्वैतवाद ने दो तत्त्वों को विश्व-व्यवस्था का नियामक माना। अद्वैतवाद में भूताद्वैत तथा चैतन्याद्वैत प्रसिद्ध है। इन दो धाराओं के फलस्वरूप हमें जीव और जड़ के सम्बन्ध में चार अवधारणाएं प्राप्त होती हैं
1. सन्मतितर्कप्रकरण 3/53 कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेवा समासओ होति सम्मत्तं ।। 2. (क) छान्दोग्योपनिषद् । 4/1सर्वं खल्विदं ब्रह्म
(ख) काठकोपनिषद् 2/1/11 नेह नानास्ति किंचन 3. ठाणं 2/| जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं, तंजहा-जीवच्चेव अजीवच्चेव।
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