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कर्ममीमांसा
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का भागी। ये सब विभिन्नताएं प्रत्यक्ष हैं। दार्शनिक इन विभिन्नताओं का कारण खोजते रहे हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् में सुख-दु:ख के हेतु की गवेषणा के अन्तर्गत अनेक कारणों का उल्लेख हुआ है।' इस सम्बन्ध में दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। कुछ दार्शनिक काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पुरुष आदि को विभिन्नता का हेतु मानते हैं। इस मतभेद के होने पर भी भारतीय चिन्तक एक निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस विविधता का कारण स्वयं जीव द्वारा किया गया कर्म है। कठोपनिषद् में कहा गया कि विभिन्न प्रकार की योनियां कर्म एवं ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होती है।' बौद्ध दर्शन भी लोक वैचित्र्य का हेतु कर्म को मानता है। जैन दर्शन में विविधता का हेतु
जैन दर्शन में भी प्राणियों तथा उनकी पारस्परिक विविधता का हेतु कर्म को स्वीकार किया गया है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट निर्देश प्राप्त है कि उपाधि कर्म से होती है।' उपाधि का अर्थ है-- व्यवहार, व्यपदेश या विशेषण | व्यवहार अर्थात् भिन्नता कर्म जनित है। सुखी-दु:खी, सवीर्य-निर्वीर्य आदि सारे व्यपदेश कर्म से सम्बद्ध हैं। कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता।' कर्ममुक्त आत्मा के लिए नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता। कर्म के क्षीण हो जाने से पुरुष अकर्मा हो जाता है। अकर्मा के लिए यह नैरयिक है, तिर्यग्योनिक है, मनुष्य है अथवा देव है। यह बाल है, कुमार है, अमुक गोत्र वाला है इत्यादि व्यपदेश नहीं होते हैं। सारी विविधता कर्मकृत है। भगवती में कहा गया है कि जीव कर्म के द्वारा ही विभक्तिभाव अर्थात् विविधता को प्राप्त करता है। कर्म अतिरिक्त अन्य तत्त्व विविधता का हेतु नहीं है।' विविधता के पांच हेतु
यद्यपि उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ इनके समवाय को जगत वैविध्य का कारण माना है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और पुरुषार्थ परस्पर निरपेक्ष रूप में कार्य की व्याख्या करने में अयथार्थ बन
1. श्वेताश्वतरोपनिषद् ।/2 काल: स्वभावनियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्याः ।
संयोग एषा न त्वात्मभावादात्माप्यनिश: सुखदु:खहेतोः॥ 2. इन विविध वादों के विस्तार के लिए देखें-Bhargava D. Jaina Ethics, Ist Chapter,
(Delhi, 1968) 3. काठकोपनिषद् 2/2/7 योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्ये तु संयान्ति यथाकर्म यथाश्रूतम् ।। 4. अभिधर्मकोश (ले. आचार्य वसुबन्धु, इलाहाबाद, 1958) 4/1 कर्मजं लोकवैचित्र्यम्। 5. आयारो, 3,19
आचारांग भाष्यम् 3/19 1. आयारो. 3/18 अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। 8. आचारांगभाध्यम् 318 9. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 12/120 कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ।
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