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________________ तत्त्वमीमांसा 117 परमाणु ः सूक्ष्म एवं व्यावहारिक __ जैन दर्शन में दो प्रकार के परमाणु माने गए हैं - सूक्ष्म और व्यावहारिक ।' सूक्ष्म परमाणु अविभाज्य होता है। उसको विभक्त नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन में दो नय स्वीकृत है निश्चय नय एवं व्यवहार नय। निश्चयनय तात्त्विक अर्थ का अभ्युपगमक होता है। जैसे सभी बादर स्कन्ध पञ्चवर्णात्मक होते हैं अतः भ्रमर में पांचों ही वर्ण है। व्यवहारनय लोक प्रसिद्ध अर्थ का ग्राहक होता है अतः उसकी अवधारणा में भ्रमर श्याम वर्ण का है। व्यवहार परमाणु के संदर्भ में भी यही दृष्टि प्रयुक्त होती है। अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं से व्यावहारिक परमाणु निर्मित होता है। निश्चयनय के अनुसार वह अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ही है किन्तु व्यवहार में उसे परमाणु भी कहा गया है। अनुयोगद्वार में व्यवहार परमाणु को अविभाज्य माना है।' परमाणु एवं स्कन्ध के विभाजन के संदर्भ में भगवती में विचार हुआ है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार परमाणु का विभाजन हो सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इस विषय पर गम्भीर विचार किया है। उनका मन्तव्य है कि - "जैन दर्शन के अनुसार विज्ञान सम्मत अणु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध है। व्यावहारिक परमाणु भी शस्त्र से नहीं टूटता । इस विषय में एक प्रश्न उपस्थित होता है-आगम साहित्य में असिधारा से परमाणु छिन्न-भिन्न नहीं होता, यह कहा गया है। असि की धारा बहुत स्थूल होती है, इसलिए उससे परमाणु का विभाजन नहीं होता, यह सही है। आधुनिक विज्ञान ने बहुत सूक्ष्म उपकरण विकसित किए हैं। उनसे व्यावहारिक परमाणु के विभाजन की संभावना की जा सकती है।'' पदार्थकी द्विरूपताः भारमुक्त या भारयुक्त जैन दर्शन के पदार्थ जगत् में षड्द्रव्य का सिद्धांत मान्य है। उनमें धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल ये पांच पदार्थ तो सर्वथा भारमुक्त हैं। उन्हें अगुरुलघु कहा गया है। अगुरुलघुभारहीन ही होते हैं। पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु (भारयुक्त) एवं अगुरुलघु (भारमुक्त) दोनों ही प्रकार का होता है। परमाणु से लेकर चतु:स्पर्शी स्कन्ध तक के पुद्गल अगुरुलघु 1. अणुओगदाराई, सूत्र 396, परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए य । 2. वही, सूत्र 3 98. वावहारिए -- अणंताणं सुहुमपरमाणु-पोग्गलाणं समुदय-समिति-समागमेणं से एगे वावहारिए परमाणुपोग्गले निप्फजइ। 3. अनु. म. वृ. प. । 48, ततोऽसौ निश्चयत: स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिक: परमाणुरुक्तः । (क) अणुओगदाराई, सूत्र 398 (ख) अनु. म. न. प. 148, इदमुक्तं भवति-यद्यप्यनन्तै: परमाणुभिर्निष्पन्ना: काष्ठादय: शस्त्रछेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तकस्याप्यनन्त-भेदत्वात् तावत् प्रमाणेनैव परमाण्वनन्तकेन निष्पन्नोऽसौ व्यावहारिक: परमाणुाह्यो यावत् प्रमाणेन निष्पन्नोद्यापि सूक्ष्मत्वान्नशस्त्र-छेदादिविषयतामासादयतीतिभावः। 5. भगवई (खण्ड 2), पृ. 191, भाष्य सूत्र 5/154-159 का 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 1/401-406 7. वही, 1/401-40 3, 405-406 8. वही, । - 404 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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