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________________ 118 जैन आगम में दर्शन होते हैं। कार्मण वर्गणा चतु:स्पर्शी है अत: कर्म को अगुरुलघु कहा है।' पांच शरीर में कार्मण शरीर को अगुरुलघु एवं शेष चार शरीर को गुरुलघु कहा हैं। कार्मण शरीर को छोड़कर शेष चार शरीर अष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्धों से निर्मित हैं। मनयोग, वचनयोग को अगुरुलघु एवं काययोग को गुरुलघु कहा गया है। यहां पर प्रश्न उपस्थित होता है कि काययोग को एकान्त गुरुलघु क्यों कहा गया? क्योंकि कार्मण शरीर तो चतु:स्पर्शी है उसका योग भी चतु:स्पर्शी होना चाहिए, यहां यह सम्भावना भी नहीं की जा सकती कि कार्मण शरीर तो चतु:स्पर्शी है किंतु योग अष्टस्पर्शी हो जाता है क्योंकि मनोयोग, वचनयोग को अगुरुलघु कहा है संभव ऐसा लगता है यह वक्तव्य कार्मण शरीर से इतर शरीरों के लिए है क्योंकि कार्मण योग तो मात्र अन्तराल गति एवं केवली समुद्घात के समय में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं है। चार शरीरों का ही काययोग मुख्य है अत: बहुलता की दृष्टि से काययोग को गुरुलघु कह दिया गया है। यह भी सापेक्ष वचन ही है। पुद्गल का परिणमन जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल रूपी है। रूपी उसे कहते हैं जिसमें वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श होते हैं। पांच अस्तिकायों में मात्र पुद्गल ही मूर्त है। पुद्गल का परिणमन अनेक प्रकार का होता है। भगवती में पुद्गल के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान इन पांच प्रकार के परिणमनों का उल्लेख प्राप्त है। स्थानांग में चतुर्विध पुद्गल-परिणमन का उल्लेख है।' वहां पर संस्थान का उल्लेख नहीं किया गया है। इसका अर्थ हुआ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श पुद्गल मात्र का असाधारण धर्म है। ये चारों गुण परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में ही रहेंगे। यद्यपि संस्थान पुद्गल का ही होता है किंतु यह संस्थान रूप परिणमन स्कन्ध में ही हो सकता है परमाणु में नहीं अत: संस्थान रूप परिणमन की पुद्गल में सर्वव्यापकता नहीं है, इसलिए ही उत्तरवर्ती आचार्यों ने पुद्गल के लक्षण विमर्श में दो सूत्रों का प्रणयन किया है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गला: शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्त:' इसका अर्थ हुआ 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/407 2. वही, 1/412 3. वही, 1/413 4. वही, 2 / 129 5. वही, 2/129 6. वही, 8/467,पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे। 7. ठाणं, 4/135, चउब्विहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणाम, रसपरिणामे, फासपरिणामे। 8. तत्त्वार्थसूत्र, 5/23 9. वही, 5/24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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