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________________ 242 मुक्त जीव की गति के चार हेतु शरीर मुक्त आत्मा की गति के संदर्भ में भगवती में चार हेतु प्रस्तुत किए गए हैं। 1. निस्संगता 2. बन्धन - छेदन 3. निरिन्धनता 4. पूर्वप्रयोग 1. निस्संगता - कर्मों के संग से मुक्त होने से आत्म निस्संग, निर्लेप बन जाती है । जैसे लेपमुक्त तुम्बा पानी के ऊपर आ जाता है वैसे ही आत्मा कर्म मुक्त होकर ऊपर चली जाती है । जैन आगम में दर्शन 2. बन्धन छेदन - कर्म बंध का छेद होते ही जीव अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोकान्त तक चला जाता है । बंधन छेदन को फली और एरण्ड फल के दृष्टान्त से समझाया गया है । 3. निरिन्धनता - निरिन्धनता को समझाने के लिए भगवती में धूम का उदाहरण दिया गया है । ' तत्त्वार्थ सूत्र में इस हेतु का प्रयोग नहीं हुआ है । यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्र प्रदत्त तथागति परिणाम' से इसकी तुलना की जा सकती है। 4. पूर्वप्रयोग - कर्म मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन का एक हेतु पूर्व प्रयोग माना गया है । यद्यपि वर्तमान में वह कर्म मुक्त है। किन्तु पूर्व अवस्था की अपेक्षा मुक्त आत्मा की गति होती है । उमास्वाति ने भी मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति के चार हेतुओं का उल्लेख किया है । " भगवती में प्राप्त निरिन्धनता हेतु के स्थान पर यहां पर 'तथागतिपरिणाम' का उल्लेख हुआ है जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है। मुक्त आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है किन्तु उसको भी गति सहायक तत्त्व धर्मास्तिकाय की अपेक्षा रहती है अत: मुक्त आत्मा लोकान्त में ही स्थित हो जाती है। अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण अलोक में मुक्तआत्माओं की गति नहीं होती है । इस समस्त विवरण से यह स्पष्ट है कि जैनागमों में कर्म का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म एवं विस्तृत है । इस विश्लेषण को श्वेताम्बर परम्परा के कर्मग्रंथों तथा दिगम्बर परम्परा के करणानुयोग के ग्रंथों में चालू रखा गया। जैन की समस्त आचारमीमांसा के केन्द्र में कर्म ही है । अत: कर्म को इतना महत्त्व देना स्वाभाविक है। अगले अध्याय में आचार की मीमांसा करते समय कर्मबन्ध से मुक्ति की प्रक्रिया का हम वर्णन करेंगे । 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7 / 10-15 2. वही, 7/13 3. वही, 7/14 4. तत्त्वार्थसूत्र 10/6 5. तत्त्वार्थसूत्र 10/6 पूर्वप्रयोगाद्, असंगत्वाद्, बन्धच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only 000 www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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