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कर्ममीमांसा
आयुष्य का बन्ध पूर्वजन्म में हो जाता है, किन्तु उसका वेदन नए जन्म के साथ ही प्रारम्भ होता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि सुख-दुःख और आयु के वेदन में नया नियामक की भूमिका निभाता है। आयुष्य कर्म है तो जन्म है, जन्म है तो आयुष्य कर्म का भोग है। ये परस्पर जुड़े हुए हैं। पातञ्जल योगसूत्र में भी यह तथ्य अभिव्यक्त हुआ है'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:' । '
पुनर्जन्म : स्वत: चालित व्यवस्था
पुनर्जन्म की व्यवस्था स्वत: चालित है। वह ईश्वर आदि किसी शक्ति के परतंत्र नहीं है । स्वकृत कर्म के फल विपाक के अनुसार ही जीव नरक आदि नाना स्थानों में उत्पन्न होता है। जब कर्मों से भारी बनता है तब वह अधोगामी गतियों में उत्पन्न होता है एवं जब कर्म के भार से हल्का होता है तब ऊर्ध्वगामी विशिष्ट गतियों में उत्पन्न होता है । जीव जब सर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है तब उसका संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है । पुनर्जन्म की श्रृंखला टूट जाती है । अध्यात्म साधना का मूल उद्देश्य पुनर्जन्म की श्रृंखला को तोड़कर आत्म-स्वभाव में अवस्थित होना ही है ।
मुक्त जीव की गति
जीव जब कर्ममुक्त हो जाता है तब वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। कर्म की बंधावस्था
संसार में था । कर्म के कारण उसमें गति हो रही थी। जब जीव कर्ममुक्त हो जाता है तब उसकी गति होती है या नहीं होती ? होती है तो कैसे होती है ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। भगवती में अकर्म की गति का वर्णन प्राप्त है। कर्म रहित जीव भी लोकान्त तक गति करता है । गौतम ने भगवान् से पूछा - भंते! क्या अकर्म (कर्ममुक्त) की भी गति होती है । भगवान् ने इसका सकारात्मक उत्तर दिया है। "
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अधिकांश भारतीय दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। इसलिए वहां मुक्त आत्मा की गति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा शरीर - व्यापी है।' वह शरीर का त्याग मनुष्य लोक में करती है वहां से ऊर्ध्वगमन करके लोकान्त में जाकर स्थित हो जाती है ।' धर्मास्तिकाय का उससे आगे अभाव होने से वह अलोक में नहीं जा सकती।
1.
पातञ्जल योगदर्शन 2 / 13
2. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई ) 9 / 125-132
3. वही, 7/10 अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति हंता अत्थि ।।
4. वही, 7/155
5.
उत्तरज्झयणाणि 36/56 अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्टिया । इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥
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