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आचार मीमांसा
आचार की परिभाषा
आचार का शाब्दिक अर्थ है-आचरण। जिसका आचरण किया जाए वही आचार है। 'आचर्यते इति आचार:'। आङ् उपसर्गपूर्वक चर-गतौ धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने से आचार शब्द निष्पन्न होता है। जो आचरण, व्यवहार, रीति-रिवाज आदि का वाचक है । गत्यर्थक चर धातु से निष्पन्न होने से इसमें ज्ञानार्थकता भी अन्तर्निहित है, अत: सम्यक् ज्ञान सहित उत्कृष्ट आचरण ही आचार है। शिष्ट व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण ज्ञान-दर्शन आदि के आसेवन की विधि को आचार कहा जाता है।' वेश-धारण आदि बाह्य क्रिया-कलाप को भी टीकाकारों ने आचार कहा है। आचार शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है, यथा-धर्म, नीति, कर्तव्य, नैतिकता आदि। मानव के कर्तव्यों के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार में समाहित हो जाते हैं। स्थानांग वृत्ति में आचार शब्द के आचरण, व्यवहार एवं आसेवन ये तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं।' आचारांग के भाष्य ने परिज्ञा, विरति अथवा संयम को आचार कहा है। आचार की यह व्यापक स्वीकृति है। इसमें ज्ञान एवं आचरण दोनों का समावेश हो गया है। ज्ञ एवं प्रत्याख्यान के भेद से परिज्ञा दो प्रकार की है। इस प्रकार जानना और छोड़ना ये दोनों साथ मिलकर ही आचार को पूर्णता प्रदान करते हैं। आचार का स्वरूप
भारतीय दर्शन में धर्म, आचार, नीति आदि शब्द परस्पर पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। धर्म शब्द का प्रयोग व्यापक क्षेत्र में हुआ है। सामाजिक कर्तव्यों को भी धर्म की
1. नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. 75, शिष्टाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिः। 2. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य वृत्ति, पत्र 499, आचारो-वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः। 3. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र 64, आचरणमाचारोव्यवहारः।
(ख) वही, पत्र 325, आचरणमाचारोज्ञानादिविषयासेवनेत्यर्थः। 4. आचारांग भाष्यम्, । का आमुख पृ. 15, आचार:-परिज्ञा विरति: संयमो वा। 5. आचारांगटीका, पृ. 7
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