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जैन आगम में दर्शन
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अभिधा से अभिहित किया गया वहीं चारित्र को धर्म का लक्षण बताया गया ।' अपने स्वरूप में रमण करने को चारित्र कहा गया है। स्वरूपे चरणं चारित्रम् | इसका तात्पर्य हुआ अपने स्वभाव में स्थित रहना ही चारित्र है। इसलिए यह भी कहा गया - वत्थुसहावो धम्मो । ' वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । वस्तुतः स्वभाव में रहना ही आचार है। जिन उपायों से जीव अपने स्वभाव में रमण करता है वे सारे उपाय आचार के अन्तर्गत परिगणित होते हैं। अहिंसा, संयम एवं तप धर्म के स्वरूप हैं वे ही आचार के साधक तत्त्व हैं।
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आचार व्यक्ति का क्रियात्मक पक्ष है तथा विचार उसका ज्ञानात्मक पक्ष है। ज्ञान का प्रकटीकरण जब क्रिया में होता है तब वह आचार बन जाता है। ज्ञान स्व-संवेद्य है। आचार पर संवेद्य भी है । व्यक्ति के अच्छे या बुरे का मापन ज्ञान से नहीं होता, उसके आचरण से होता है । व्यावहारिक मनोविज्ञान का मूल आधार व्यक्ति का आचार ही है ।
समता या समभाव आत्मा का स्वभाव है और विषमता उसका विभाव है। विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता की ओर ले जाना वाला आचरण ही सदाचार है। जैन धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार का शाश्वत मानदण्ड समता एवं विषमता है। स्वभाव दशा से फलित होने वाला आचरण सदाचार है और विभाव दशा या पर-भाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है।
आचरण की देशकालानुसारिता
जैन दर्शन के अनुसार सदाचार का शाश्वत मानदण्ड कर्मबंधन से मुक्ति ही है। जो भी आचरण जीव को कर्म मुक्ति की दिशा में ले जाता है, वह सद् आचरण है। कर्मबंधन की ओर ले जाने वाला आचरण असद् आचरण है । देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आचरण के बाह्य साधनों में परिवर्तन हो सकता है। परिस्थिति विशेष में सद् आचरण एवं असद् आचरण के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। जैसे सामान्य स्थिति में आत्म हत्या दुराचार है किंतु शीलरक्षा हेतु किया जाने वाला देहोत्सर्ग सदाचार की कोटि में परिगणित है । देश, काल, परिस्थिति के अनुसार सदाचार दुराचार बन जाता है, दुराचार सदाचार बन जाता है। जैन विचारणा का यह स्पष्ट अभिमत है कि आचार के जो प्रारूप सामान्यतया बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्थिति विशेष में मुक्ति के कारण बन जाते हैं और मुक्ति के साधन बंधन के कारण बन जाते हैं। "जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा" ।' आचार एवं अनाचार पर विचार करते समय आचार्य उमास्वाति ने भी देश, काल, परिस्थिति को प्रधानता दी है। एकान्त रूप से न तो कोई कर्म आचरणीय होता है और न ही अनाचरणीय । इसी अवधारण को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है
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1. प्रवचनसार, (ले. आचार्य कुन्दकुन्द, बम्बई, 1955 ) 1/7, चारित्तं खलुधम्मो । 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 478
3.
दसवे आलियं, 1 / 1, धम्मो मंगलमुक्किद्वं अहिंसा संजमो तवो।
4.
आयारो, 4/12
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