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________________ आचार मीमांसा 245 _ "देशं कालं पुरुषमवस्थामुपघातशुद्धपरिणामान्। प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम्॥" किसी कार्य की आचरणीयता और अनाचरणीयता देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति और मन:स्थिति पर निर्भर होती है। महाभारत में भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन हुआ है य एव धर्म: सोऽधर्मो देशकाले प्रतिष्ठितः। आदानमनृतं हिंसा धर्मो व्यावस्थिक स्मृतः॥ वस्तुत: सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन दैशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता रहता है। मनु ने काल के आधार पर सतयुग, कलयुग आदि के आचरण में भिन्नता स्वीकार की है। जैन विचारकों ने सदाचार यानैतिकता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर प्रभूत विचार किया है। ज्ञान एवं आचरण जीवन विकास एवं समाज को स्थिर सम्पन्न बनाने के लिए आचार की नितान्त आवश्यकता होती है। मानव के कर्तव्य के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार में समाहित हो जाते हैं। आचार सभी भारतीय, पाश्चात्य चिंतकों के विमर्श का विषय रहा है। सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू के दर्शन में नीति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। सुकरात ने ज्ञान को सर्वोच्च शुभ माना है-"Virtue is Knowledge"' किंतु आचार मीमांसा के क्षेत्र में सुकरात की यह अवधारणा पूर्ण रूपसेसमर्थित नहीं हो पाईक्योंकि आचरणशून्य ज्ञान पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। कोरे ज्ञान से व्यक्ति का आचरण ठीक हो ही जाए यह आवश्यक नहीं है अपितु व्यवहार में इसके विपरीत भी देखा जाता है। महाभारत में दुर्योधन कहता है-मैं धर्म को जानता हूं किंतु उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है तथा अधर्म को भी जानता हूं किंतु उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूं जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। ज्ञान के सही होने पर आचरण की शुद्धता अनिवार्य नहीं है अत: सुकरात का वक्तव्य आचार के क्षेत्र में अपर्याप्त माना जाता है The Socratic formula'virtue is knowledge'is found to be an inadequate explanation of the moral lifeofman. Knowledge of what is right is not coinci 1. प्रशमरितप्रकरण, (ले. उमास्वाति, अगास, 1950) गाथा 146 2. शान्तिपर्व, 37/8 3. मनुस्मृति, 1/85, अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे। अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपतः॥ 4. Encyclopedia of Religion and Ethics. P. 405 5. शांतिपर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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