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आचार मीमांसा
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आसन की साधना
जैन साधना पद्धति में आसन का प्रयोग विहित है। स्वयं भगवान् महावीर ने आसन की साधना की थी। भगवान् आसन में बैठकर ध्यान करते थे।' भगवान् महावीर की साधना काल के मुख्य आसन-उत्कुटुक आसन, वीरासन, गोदोहिका आसन अथवा ऊर्ध्व आसन आदि।
आसन जैन साधना पद्धति के मुख्य अंग रहे हैं। 'कायक्लेश' नामक तप आसन से ही सम्बन्धित है।' श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भगवान् महावीर ने विशेष आसनों का वर्णन किया है। जो निम्न हैं -
1.स्थानायतिक-जिस आसन में सीधा खड़ा होना होता है उसका नाम स्थानायतिक है। स्थान (आसन) तीन प्रकार के होते हैं-ऊर्ध्वस्थान, निषीदन-स्थान और शयन-स्थान। स्थानायतिक ऊर्ध्वस्थान का सूचक है। इसमें कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त होकर, दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर झुकाकर खड़ा होना होता है।
2. उत्कटुकासनिक-उकडू बैठना।
3. प्रतिमास्थायी-बैठी या खड़ी प्रतिमा की भांति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह काय-क्लेश तप का एक प्रकार है। इसमें उपवास आदि की अपेक्षा, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि की प्रधानता होती है। स्थानांग टीकाकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है।'
4. वीरासन-सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है।'
5. नैषधिक-इसका अर्थ है, बैठने की विधि | इसके पांच प्रकार हैं।'
इसी प्रकार दण्डायतिक, लगंडशायी आदि अनेक प्रकार के आसनों का उल्लेख आगम-साहित्य में हुआहै। जैन साधना पद्धति में ध्यान, आसन, कायोत्सर्ग आदिको प्रारम्भ से ही बहुत महत्त्व दिया गया है।
1. आयारो, 9/4/14, अवि झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। 2. आचारांगभाष्यम्, पृ. 442 3. ठाणं, 1/49, सत्तविधे कायकिलेसे पण्णत्ते. तं जहा-ठाणातिए........ 4. ठाणं, 5/42,43,50 टिप्पण,पृ. 618-621 5. स्थानांग वत्ति, प. 298, प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्यैवंशीलो य: स
प्रतिमास्थायी। 6. वही, पत्र 298 7. ठाणं,5/56
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