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________________ 266 जैन आगम में दर्शन प्रतिमा की साधना जैन साधना पद्धति में प्रतिमा' की विशिष्ट साधना का वर्णन प्राप्त होता है। उस पर विमर्श करना प्रस्तुत प्रसंग में काम्य है। तपस्या के विशेष मानदण्ड को अथवा साधना के विशेष नियम को प्रतिमा कहते हैं। स्थानांग टीका में प्रतिमा का अर्थ प्रतिपत्ति, प्रतिज्ञा या अभिग्रह किया गया है। साधना की भिन्न-भिन्न पद्धतियां और उनके भिन्न-भिन्न मानदण्ड होते हैं। उन सबका प्रतिमा के रूप में वर्गीकरण किया गया है। स्थानांग में प्रतिमा के बारह प्रकारों का उल्लेख है-1. समाधि 2. उपधान 3. विवेक 4. व्युत्सर्ग 5. भद्रा 6. सुभद्रा 7. महाभद्रा 8. सर्वतोभद्रा 9. क्षुद्रक प्रस्रवण 10. महत् प्रस्रवण 11. यवमध्याचन्द्र एवं 12. वज्रमध्याचन्द्र । इनमें से कुछ प्रतिमाओं के अर्थ उपलब्ध हैं, उपलब्ध अर्थ भी मूलग्राही है, यह कहना की कठिन है। कुछ भी अर्थ-परम्परा विस्मृत ही हो चुकी है। अभयदेवसूरि ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। उन्होंने सुभद्रा प्रतिमा के विषय में लिखा है कि उसका अर्थ उपलब्ध नहीं है। प्रशस्तभावलक्षण वाली समाधि प्रतिमा है। उसके दो भेद हैं- श्रुतसमाधि प्रतिमा और सामायिकादि चारित्र समाधि प्रतिमा।' उपधान प्रतिमा-उपधान का अर्थ है-तपस्या । भिक्षु की बारह और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को उपधान प्रतिमा कहा जाता है। विवेक प्रतिमा भेदज्ञान की प्रक्रिया है। इस प्रतिमा के अभ्यासकाल में आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया जाता है। इसका अभ्यास करने वाला क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। ये आत्मा के सर्वाधिक निकटवर्ती अनात्म तत्त्व हैं। इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह बाह्यवर्ती संयोगों की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। बाह्य संयोग के मुख्य तीन प्रकार हैं-(1) गण (2) शरीर (3) भक्तपान । विवेक प्रतिमा की तुलना आचार्य महाप्रज्ञ जी ने विवेक ख्याति से की है। महर्षि पतंजलि ने इसे हानोपाय बतलाया है।' समवायसूत्र में उपासक के लिए ग्यारह और भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं।' उसी आगम में वैयावृत्त्य कर्म की 91 एवं 92 प्रतिमाओं का बिना नाम-निर्देश के उल्लेख I. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र 64, प्रतिमा प्रतिपत्ति: प्रतिज्ञेतियावत् । (ख) वही, पत्र 1 95, प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः । ठाणं, 2/243 - 248, टिप्पण, पृ. 12 5 (स्थानांगवृत्ति, पत्र 65, सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति।) 3. स्थानांग वृत्ति, पत्र 64 4. वही, पत्र 64 5. ठाणं, टिप्पण, 2/24 3 - 248 पृ. 133 6. योग दर्शन, 2/2 6, विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय:। 7. समवाओ, 11/1, 12/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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