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________________ जैन आगम में दर्शन जीव, अजीव (भाषा वर्गणा, मन वर्गणा और शरीर वर्गणा) का संग्राहक है । कर्म संसारी जीव का संग्राहक है । ........जीव और पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों में आपस में संग्राह्यसंग्राहक भाव नहीं है। लोक-स्थिति में जीव और पुद्गल में संग्राह्य एवं संग्राहक भाव माना गया है । ' 94 जिनवचन नयविहीन नहीं होते हैं यह जैनदर्शन की स्वीकृति है। लोकस्थिति के संदर्भ में दिये गए वक्तव्य सापेक्ष ही है। सामान्य रूप से पृथ्वी समुद्र पर स्थित है किन्तु ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी को आकाश प्रतिष्ठित माना गया है।' जीवों का मुख्य आधार पृथ्वी है किन्तु वे भी कहीं-कहीं स्थान विशेष में आकाश, विमान, पर्वत प्रतिष्ठित भी होते हैं।' बहुलता की अपेक्षा से उदधि प्रतिष्ठित पृथ्वी एवं पृथ्वीप्रतिष्ठित त्रस स्थावर प्राणी यह वक्तव्य दिया गया है। भगवती टीकाकार ने अजीव का अर्थ शरीर आदि पुद्गल किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अजीव सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य परिवर्तन और परिणमन है, वे जीव के द्वारा कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। जीव का जितना नानात्व है, उसके जितने परिवर्तन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न हैं । इस अपेक्षा से जीव को कर्म-प्रतिष्ठित कहा गया है। अजीव-जीव के द्वारा संगृहीत है, उनमें कथंचित् एकात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है। कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है । भगवती के टीकाकार ने 'प्रतिष्ठित ' की व्याख्या आधार - आधेय भाव के साथ तथा 'संगृहीत' की व्याख्या संग्राह्य-संग्राहक भाव के साथ की है । ' विश्व - व्यवस्था के सार्वभौम नियम ईश्वर कर्तृत्ववादियों के अनुसार जगत्-व्यवस्था का नियामक ईश्वर होता है। जैन दर्शन जगत्कर्ता के रूप में किसी भी ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार नहीं करता है । " 1. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 219 2. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव । 3. वही, पृ. 384, तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावरा: प्राणा: इदमपि प्रायिकमेव अन्यथाकाशपर्वतविमान प्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति । 4. वही, पृ. 137-138 (अथाजीवा जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः ? उच्यतेपूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्य संग्राहकभाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्यं तत्तस्याधेयमप्यर्थापत्तित: स्याद् यथाऽपूपस्य तैलमित्याधाराधेय भावोप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति । तथा जीवाः कर्मसंगृहीता: संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्त्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति ।) 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, (अमृत कलश II) (ले. हेमचन्द्राचार्य, चूरू, 1998) कारिका 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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