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________________ तत्त्वमीमांसा 95 4. उसके अनुसार इस विश्व के कुछ स्वत: संचालित सार्वभौम नियम हैं, उनके माध्यम से ही यह विश्व-व्यवस्था बनी हुई है। लोक-स्थिति उन सार्वभौम नियमों का ही निदर्शन है। स्थानांग सूत्र में ही विश्वव्यवस्था के संचालक दस नियमों का उल्लेख हुआ है 1. जीव बार-बार मरते हैं और पुन: पुन: वहीं उत्पन्न होते हैं। 2. जीवों (संसारी) के सदा, प्रतिक्षण पापकर्म का बंध होता है। 3. जीवों के सदा, प्रतिक्षण मोहनीय व पापकर्म का बंध होता है। जीव कभी भी अजीव न तो हुए हैं, न हैं और न होंगे। वैसे ही अजीव कभी भी जीव नहीं हो सकते। वस जीवों का कभी व्यवच्छेद नहीं होगा और सब जीव स्थावर हो जाएं अथवा स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस हो जाएं, ऐसा भी कभी नहीं होगा। 6. लोक कभी भी अलोक नहीं होगा, अलोक लोक नहीं होगा। 7. लोक कभी भी अलोक में प्रविष्ट नहीं होगा और अलोक कभी लोक में प्रविष्ट नहीं होगा। 8. जहां लोक है वहां जीव है और जहां जीव है वहां लोक है। 9. जहांजीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है। 10. समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते।' स्थानांग संख्या सूचक ग्रन्थ है तथा उसमें एक से दस तक की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन हुआ है। जैन आगमों में जीव, कर्म, पुनर्जन्म आदि विषयों से सम्बन्धित विपुल मात्रा में सार्वभौम नियमों का उल्लेख है। उनके संग्रहण एवं व्याख्या का प्रयत्न एक नए शोध प्रबन्ध का विषय हो सकता है। हमने तो प्रसंगानुकूल उस तथ्य की ओर केवल ध्यान आकर्षित करने का ही प्रयत्न किया है। लोक के घटक तत्त्व __ जैन दर्शन में विश्व के लिए लोक शब्द व्यवहृत हुआ है। जैन चिन्तन के अनुसार इस जगत् में पांच अस्तिकाय अथवा काल सहित छ: द्रव्य मूल हैं। भगवती में पंचास्तिकाय को 1. ठाणं 10/1 2. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई) 13/53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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