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________________ जैन आगम में दर्शन लोक कहा गया है। "पंचत्थिकाया एस णं एवतिए लोए त्ति पच्चइ'। ये पांच अस्तिकाय ही लोक के घटक द्रव्य हैं। स्थानांग में पांच अस्तिकाय के वर्णन के समय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय को 'लोकद्रव्य' कहा है तथा आकाशास्तिकाय को लोकालोकद्रव्य कहा है।' स्थानांग एवं भगवती की टीका के अनुसार लोक के अंशभूत होने के कारण इनकोलोकद्रव्य कहा गया है। इसकातात्पर्य हुआ अस्तिकाय ही लोक है इससे भिन्न लोक का अन्य स्वरूप नहीं है। आकाश का एक भाग तथा अन्य चार अस्तिकाय- इन पांच अस्तिकाय के संयुक्त रूप को ही लोक कहा जाता है। जैन दर्शन का जगत् विश्लेषण पांच अस्तिकाय अथवा षड्द्रव्य के रूप में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्यका अवलोकन करते हैं तब वहां पर तत्त्व से सम्बन्धित चार प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं जिसका उल्लेख आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने इस प्रकार किया है - 1. द्रव्य-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। 2. पंचास्तिकाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्ति काय, पुद्गलास्तिकाय। 3. छह द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। 4. नवतत्त्व-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष । जैन दर्शन ने मूल तत्त्व दो ही माने हैं-जीव और अजीव। पंचास्तिकाय' षडद्रव्य एवं नवतत्त्व' इन दो का ही विस्तार है। विश्व-व्यवस्था, अस्तित्व की चर्चा में पंचास्तिकाय अथवा षड्द्रव्य का विवेचन होता है तथा साधना की दृष्टि से नवतत्त्व का विश्लेषण किया जाता है। भगवान् महावीर की मौलिक अवधारणा विश्व-व्यवस्था के संदर्भ में अस्तिकाय की प्रज्ञप्ति भगवान् महावीर की विशिष्ट अवधारणा है। जगत व्याख्या के संदर्भ में सांख्य ने प्रकृति (अजीव-पुद्गल) एव पुरुष (जीव) का, बौद्ध ने नाम एवं रूप का, वैशेषिक ने नौ द्रव्यों का उल्लेख किया है किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त मात्र महावीर द्वारा ही प्रतिपादित हुआ है। अस्तिकाय शब्द का प्रयोग भी जैनेतर किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। यद्यपि जैन ने द्रव्य शब्द का भी प्रयोग किया है किन्तु 1. ठाणं, 5/170-174, धम्मत्थिकाए............अवट्ठिए लोगदव्वे। 2. (क) स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च, पृ. 2 22, लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं । (ख) भगवई, (खण्ड-1), पृ. 411, लोकस्य-पंचास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम्। 3. भगवई (खण्ड-1) पृ. 291 अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/9 5. (क) ठाणं 5/16 9-174 (ख) अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/124 वही, 25/11-12 7. ठाणं 9/6 6. वहा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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