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जैन आगम में दर्शन
- 'जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च।' जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु एवं मृत का जन्म निश्चित रूप से होता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नवीन वस्त्र धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण कर लेती है।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
जिस प्रकार इस शरीर में बाल्य, यौवन एवंबुढ़ापा आता है। वैसे ही आत्मा को देहान्तर की प्राप्ति होती है। धीर पुरुष वैसी स्थिति में मोहित नहीं होता। बौद्ध
बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी माना जाता है। क्योंकि उसने आत्मा की स्वतंत्र सत्ता न मानकर सन्तति प्रवाह के रूप में उसका अस्तित्व स्वीकार किया है। इस दर्शन में भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकृत है। भगवान बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले कांटे को पूर्वजन्म में किए हुए प्राणीवध का विपाक माना है--
इत एकनवतिकल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।।
जैन
जैन दर्शन आत्मवादी-कर्मवादी दर्शन है। कर्मवाद की अवधारणा में पुनर्जन्म सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने कहा- राग और द्वेष कर्म के बीज हैं तथा कर्म जन्म मरण का मूल कारण है। पुनर्जन्म कर्म युक्त आत्मा के ही हो सकता है। अकर्मा आत्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होती है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए कहा है कि
बालं शरीरं देहतरपुव्वं इंदिया इमत्ताओ। जुवदेहो बालादिव स जस्स देहो स देही त्ति ।।
जिस प्रकार युवक का शरीर बालक की उत्तरवती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है।इसका जो अधिकारी है, वही आत्मा है। जातिस्मृति ज्ञान पूर्वजन्म का पुष्ट प्रमाण है। भगवान् महावीर अपने शिष्यों को संयम में दृढ़ करने के लिए जाति-स्मृति करवा देते थे। मेघकुमार जब संयम से च्युत होने लगा तब भगवान् ने उसको पूर्वजन्म का स्मरण करवा दिया। जैन आगमों में आगत 'पोट्ट-परिहारं' शब्द भी पुनर्जन्म सिद्धान्त का संवाहक है। गोशालक को उत्तरित करते हुए भगवान ने कहा था कि ये तिल पुष्प के बीज मरकर पुनः इसी पौधे की फली में फलित होंगे। भगवती, आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विपुल मात्रा में पूर्वजन्म के निदर्शन उपलब्ध है।
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