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आत्ममीमांसा
अप्काय के शस्त्र
अकायिक जीवों को निष्प्राण करने वाले अनेक शस्त्रों का उल्लेख प्राप्त है । आचारांग
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नियुक्ति में उनका उल्लेख इस प्रकार है'
1. उत्सेचन - कुए आदि से बाल्टी आदि के द्वारा पानी निकालना ।
2. गालन - सघन और स्निग्ध वस्त्र से जल छानना ।
3. धावन - वस्त्र, पात्र आदि का प्रक्षालन ।
4. स्वकाय शस्त्र - नदी का पानी तालाब के पानी का शस्त्र ।
5. पर काय शस्त्र-मिट्टी, तेल, क्षार और अग्नि आदि ।
6. तदुभयशस्त्र - जलमिश्रित मिट्टी जल का शस्त्र ।
आचारांगचूर्णि में अप्काय के इनसे भिन्न शस्त्रों का उल्लेख हुआ है। चूर्णिकार ने वर्ण, रस, गंध और स्पर्श को शस्त्र कहा है। जैसे - अग्नि पुद्गलों के अनुप्रविष्ट होने से गरम पानी वर्ण से थोड़ा कपिल (पीला मिश्रितलाल) हो जाता है। गंध से वह धूमगन्धवाला हो जाता है। जहां गंध होती है वहां रस भी होता है। रस से वह पानी विरस बन जाता है। स्पर्श से वह उष्ण होता है । जल थोड़ा गर्म होने पर भी अचेतन नहीं होता। जिसमें उकाला न आया हो, जो पूरा उबला हुआ न हो वह सजीव ही होता है। लोना, मीठा और अम्ल पानी परस्पर एकदूसरे के शस्त्र होते हैं। दुर्गन्धयुक्त पानी प्रायः अचित्त होता है । '
पानी के सचित्त, अचित्त के संदर्भ में जैन आगम साहित्य में प्रभूत विचार हुआ है । मुनि अहिंसा महाव्रत की अनुपालना के अन्तर्गत प्रासंगिक रूप से इस विषय पर विशद विवेचना आगमों में उपलब्ध है ।
तेजस्काय
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जैन दर्शन अग्नि को भी सजीव मानता है। जिनका शरीर ही अग्नि है वे तेजस्कायिक जीव कहलाते हैं। अग्नि, अंगार, उल्का आदि अनिकाय के विविध प्रकार हैं । जो व्यक्ति अग्निकाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वह अपने अस्तित्व का भी अपलापक होता है । ' तेजस्काय के जीव सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। उनके अस्तित्व की अवगति का मुख्य साधन तीर्थंकर की वाणी ही है, फिर भी आगमों के व्याख्याकारों ने उनमें जीवत्व सिद्ध करने के लिए हेतु भी प्रस्तुत किए हैं
1. आचारांगनिर्युक्ति, गा. 113, उस्सिंचण-गालण-धोवणे य उवगरणमत्तभंडे य ॥
बायर आउक्काए एवं तु समासओ सत्थं ॥
2. आचारांग चूर्णि, पृ. 27, 28 3. आयारो, 1/66
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