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________________ 158 जैन आगम में दर्शन बोध नहीं कर सकते। उन जीवों के जीवत्व की सिद्धि के लिए तथा परोक्षबुद्धि वाले मनुष्यों को उनका सम्यक् अवबोध हो, इसलिए आचारांग का प्रवक्ता कहता है-अप्कायिक जीवों का अस्तित्व है। प्रत्यक्षज्ञानी उसे साक्षात् जानते हैं। यदि आप उन्हें नहीं जानते हैं तो उन प्रत्यक्षज्ञानियों की आज्ञा से उनको जानें और जानने के पश्चात् उन जीवों को किसी भी प्रकार से भय उत्पन्न न करे। अप्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग अप्कायिक जीव अत्यन्त दुर्बोध हैं, वे न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न रस का आस्वाद करते हैं और न वे सुख-दु:ख का अनुभव करते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें न प्राण का स्पन्दन दृष्टिगोचर होता है और न ही उच्छवास-नि:श्वास क्रिया दिखाई देती है, फिर भी उनमें जीवत्व कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान में सर्वज्ञ की आज्ञा का निर्देश तो प्राप्त है ही साथ ही आचारांग के नियुक्तिकार ने अप्कायिक जीव के जीवत्व सिद्धि में हेतु का भी प्रयोग किया है 'जैसे तत्काल उत्पन्न कलल अवस्था मे स्थित हाथी का शरीर तथा जल प्रधान अंडे का शरीर द्रव होने पर भी सचेतन देखा जाता है वैसे ही अप्कायिक जीव भी सचेतन होते हैं।'' आचारांग के भाष्यकार अधुनातन विज्ञान द्वारा स्वीकृत जल निर्माण की विधि के माध्यम से पानी में जीवत्व स्थापित करने की जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि 'वैज्ञानिक लोग प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बिना जल की उत्पत्ति नहीं मानते। यह प्राणवायु की अनिवार्यता क्या जल के जीवत्व का समर्थन नहीं करती?' अप्काय में भी पृथ्वीकाय की तरह ही श्वास, लेश्या, ज्ञान आदि पाए जाते हैं। उनकी कष्टानुभूति के अनुभव को पृथ्वीकाय के प्रसंग में प्रस्तुत दृष्टांतों से ही समझाया है। आचारांग ने अप्कायिक जीवों के अस्तित्व को बहुत ही गम्भीरता से प्रस्तुत किया है। उसका उद्घोष है-जो जलकायिक जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जैन आगम साहित्य में पृथ्वी, अप आदि सभी जीवों के प्रकार उनकी काल-स्थिति आदि अनेक विषयों पर विस्तार से विमर्श हुआ है। जीवविद्या की दृष्टि से एक स्वतंत्र प्रबन्ध इन विषयों का हो सकता है। 1. आयारो, 1/3 8, लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । 2. आचारांगनियुक्ति, गाथा । 10, जह हत्थिस्स सरीरं कललावत्थस्स अहुणोववन्नस्स। होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं ।। 3. आचारांगभाष्यम्, पृ. 48 4. आयारो, 1/3 9, ......जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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