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________________ विषय-प्रवेश एवं अंगबाह्य आगमों का उच्छेद हो गया है। इन दोनों अवधारणाओं का समन्वय करके जब हम देखते हैं तो जैन परम्परा में बारह ही अंगों के कुछ अंश तो आज भी सुरक्षित है, ऐसा कहा जा सकता है। तत्त्वमीमांसा इस प्रबन्ध का तृतीय अध्याय तत्त्व-मीमांसा के नाम से प्रणीत हुआ है। तत्त्व-मीमांसा दर्शन का एक प्रमुख अंग है। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्व-मीमांसा के आधार पर ही आचार का निर्धारण भी होता है और आचार धर्म का प्रधान तत्त्व है। जैन आचार तत्त्व-मीमांसा से निर्धारित एवं प्रभावित हुआ है। यद्यपि तत्त्व-मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक है, फिर भी उसे स्थूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. ज्ञान मीमांसा 2. अस्तित्व (प्रमेय) मीमांसा ज्ञान और ज्ञेय का, प्रमाण और प्रमेय का परस्पर प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बन्ध है। ज्ञान प्रतिपादक है तथा ज्ञेय प्रतिपाद्य । 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि' प्रमाण के अभाव में प्रमेय का अवबोध ही नहीं हो सकता। प्रमेय का अस्तित्व स्वतंत्र है किन्तु उसकी सिद्धि प्रमाण के अधीन है। जब तक प्रमाण का निर्णय नहीं होता तब तक प्रमेय की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रमाण स्वीकृति की विभिन्नता प्रमेय स्वीकृति में भी भेद ला देती है। उदाहरणत: चार्वाक मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्वीकार करता है तो उसका प्रमेय भी इन्द्रिय ग्राह्य भौतिक पदार्थ ही है। वह अपनी प्रमाण मीमांसा के आधार पर ही आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का निषेध करता है। आगम ग्रन्थों में भी पहले ज्ञान का फिर ज्ञेय का निर्देश मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में ज्ञानखण्ड के पश्चात् ज्ञेयखण्ड का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार हमने भी प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में तत्त्व-मीमांसा के अन्तर्गत पहले ज्ञान की चर्चा एवं तत्पश्चात् द्रव्य की विवेचना की है। जैन दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। वह दृश्य जगत् को प्रत्ययवादियों की तरह अयथार्थ नहीं मानता है। उसके अनुसार इन्द्रियग्राह्य एवं अतीन्द्रिय पदार्थ के अस्तित्व में कोई भेद नहीं है। दोनों की वास्तविक सत्ता है। जैन दर्शन मूलत: द्वैतवादी है। वह विश्व के मूल तत्त्व के रूप में चेतन एवं अचेतन तत्त्वों की स्वतंत्र एवं अनादि सत्ता स्वीकार करता है। उनका अस्तित्व निरपेक्ष है। उनमें परस्पर जन्य-जनक सम्बन्ध नहीं है। यद्यपि ये दोनों तत्त्व परस्पर विरोधी स्वभाव वाले हैं तथापि संसारी अवस्था में इनका सम्बन्ध होता है। उसके माध्यम से जीव का संसार में संसरण होता है। जैन दर्शन की यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप में विरोधी धर्मों का समवाय होता है। चेतन और अचेतन विरोधी है, यह स्वीकृति तो सर्वत्र है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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